सर्व दोषोंका चूरा हो जाय । आत्मा तो अनादि-अनंत
गुणोंका पिण्ड है ।।१३५।।
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सम्यक्त्वसे पूर्व भी विचार द्वारा निर्णय हो सकता
है, ‘यह आत्मा’ ऐसा पक्का निर्णय होता है । भले
अभी अनुभूति नहीं हुई हो तथापि पहले विकल्प
सहित निर्णय होता तो है ।।१३६।।
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चैतन्यपरिणति ही जीवन है । बाह्यमें तो सब
अनंत बार मिला, वह अपूर्व नहीं है, परन्तु अंतरका
पुरुषार्थ ही अपूर्व है । बाह्यमें जो सर्वस्व मान लिया
है उसे पलटकर स्वमें सर्वस्व मानना है ।।१३७।।
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रुचि रखना; रुचि ही काम करती है । पूज्य
गुरुदेवने बहुत दिया है । वे अनेक प्रकारसे समझाते
हैं । पूज्य गुरुदेवके वचनामृतोंके विचारका प्रयोग
करना । रुचि बढ़ाते रहना । भेदज्ञान होनेमें तीक्ष्ण
रुचि ही काम करती है । ‘ज्ञायक’, ‘ज्ञायक’,
बहिनश्रीके वचनामृत
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ब. व. ४