बहिनश्रीके वचनामृत
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है; मुनिको स्वभावका अभ्यास वर्तता है । स्वयंने अपनी सहज दशा प्राप्त की है । उपयोग जरा भी बाहर जाय कि तुरन्त सहजरूपसे अपनी ओर ढल जाता है । बाहर आना पड़े वह बोझ — उपाधि लगती है । मुनियोंको अंतरमें सहज दशा — समाधि है ।।१४१।।
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हमेशा आत्माको ऊर्ध्व रखना चाहिये । सच्ची जिज्ञासा हो उसके प्रयास हुए बिना नहीं रहता ।।१४२।।
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स्वरूपकी शोधमें तन्मय होने पर, जो अनेक प्रकारके विकल्पजालमें फि रता था वह आत्माके सन्मुख होता है । आत्मस्वरूपका अभ्यास करनेसे गुणोंका विकास होता है ।।१४३।।
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सत्य समझनेमें देर भले ही लगे परन्तु फल आनन्द और मुक्ति है । आत्मामें एकाग्र हो वहाँ आनन्द झरता है ।।१४४।।
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