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बहिनश्रीके वचनामृत
रागका जीवन हो उसको आत्मामें जाना नहीं बनता; रागको मार दे तो अंतरमें जा सके ।।१४५।।
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कोई द्रव्य अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते । आत्मा तो परम शुद्ध तत्त्व है; उसमें क्षायोपशमिकादि भाव नहीं हैं । तू अपने स्वभावको पहिचान । अनंत गुणरत्नोंकी माला अंतरमें पड़ी है उसे पहिचान । आत्माका लक्षण — त्रैकालिक स्वरूप पहिचानकर प्रतीति कर ।।१४६।।
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आत्माके ज्ञानमें सब ज्ञान समा जाता है । एकको जाननेसे सब ज्ञात होता है । मूलको जाने बिना सब निष्फल है ।।१४७।।
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चैतन्यलोकमें अंदर जा । अलौकिक शोभासे भरपूर अनंत गुण चैतन्यलोकमें हैं; उसमें निर्विकल्प होकर जा, उसकी शोभा निहार ।।१४८।।
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