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बहिनश्रीके वचनामृत
आत्माको पहिचानकर स्वरूपरमणताकी प्राप्ति करना ही प्रायश्चित्त है ।।१५२।।
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राजाके दरबारमें जाना हो तो आसपास घूमता रहता है और फि र एक बार अन्दर घुस जाता है; उसी प्रकार स्वरूपके लिये देव-शास्त्र-गुरुकी समीपता रखकर अन्दर जाना सीखे तो एक बार निज घर देख ले ।।१५३।।
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जिसे जिसकी रुचि हो उसे वही सुहाता है, दूसरा बाधारूप लगता है । जिसे यह समझनेकी रुचि हो उसे दूसरा नहीं सुहाता । ‘कल करूँगा, कल करूँगा’ ऐसे वादे नहीं होते । अंतरमें प्रयास बना ही रहता है और ऐसा लगता है कि मुझे अब ही करना है ।।१५४।।
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जिसने भेदज्ञानकी विशेषता की है उसे चाहे जैसे परिषहमें आत्मा ही विशेष लगता है ।।१५५।।
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