आत्माको पहिचानकर स्वरूपरमणताकी प्राप्ति
करना ही प्रायश्चित्त है ।।१५२।।
✽
राजाके दरबारमें जाना हो तो आसपास घूमता
रहता है और फि र एक बार अन्दर घुस जाता है;
उसी प्रकार स्वरूपके लिये देव-शास्त्र-गुरुकी समीपता
रखकर अन्दर जाना सीखे तो एक बार निज घर
देख ले ।।१५३।।
✽
जिसे जिसकी रुचि हो उसे वही सुहाता है, दूसरा
बाधारूप लगता है । जिसे यह समझनेकी रुचि हो
उसे दूसरा नहीं सुहाता । ‘कल करूँगा, कल करूँगा’
ऐसे वादे नहीं होते । अंतरमें प्रयास बना ही रहता
है और ऐसा लगता है कि मुझे अब ही करना
है ।।१५४।।
✽
जिसने भेदज्ञानकी विशेषता की है उसे चाहे जैसे
परिषहमें आत्मा ही विशेष लगता है ।।१५५।।
✽
५४ ]
बहिनश्रीके वचनामृत