बहिनश्रीके वचनामृत
करना तो एक ही है — परसे एकत्व तोड़ना । परके साथ तन्मयता तोड़ना ही कार्य है । अनादि अभ्यास होनेसे जीव परके साथ एकाकार हो जाता है । पूज्य गुरुदेव मार्ग तो बिलकुल स्पष्ट बतला रहे हैं । अब जीवको स्वयं पुरुषार्थ करके, परसे भिन्न आत्मा अनंत गुणोंसे परिपूर्ण है उसमेंसे गुण प्रगट करना है ।।१५६।।
महान पुरुषकी आज्ञा मानना, उनसे डरना, यह तो तुझे अपने अवगुणसे डरनेके समान है; उसमें तेरे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि अवगुण दबते हैं । सिर पर महान पुरुषके बिना तेरा कषायके रागमें — उसके वेगमें बह जाना संभव है और इसलिये तू अपने अवगुण स्वयं नहीं जान सकेगा । महान पुरुषकी शरण लेनेसे तेरे दोषोंका स्पष्टीकरण होगा तथा गुण प्रगट होंगे । गुरुकी शरण लेनेसे गुणनिधि चैतन्यदेवकी पहिचान होगी ा होगी ।।१५७।।
हे जीव ! सुख अंतरमें है, बाहर कहाँ व्याकुल