होकर व्यर्थ प्रयत्न करता है ? जिस प्रकार
मरीचिकामेंसे कभी किसीको जल नहीं मिला है उसी
प्रकार बाहर सुख है ही नहीं ।।१५८।।
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गुरु तेरे गुणोंके विकासकी कला बतलायँगे ।
गुरु-आज्ञामें रहना वह तो परम सुख है । कर्मजनित
विभावमें जीव दब रहा है । गुरुकी आज्ञामें वर्तनेसे
कर्म सहज ही दब जाते हैं और गुण प्रगट होते
हैं ।।१५९।।
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जिस प्रकार कमल कीचड़ और पानीसे पृथक् ही
रहता है उसी प्रकार तेरा द्रव्य कर्मके बीच रहते हुए
भी कर्मसे भिन्न ही है; वह अतीत कालमें एकमेक
नहीं था, वर्तमानमें नहीं है और भविष्यमें नहीं
होगा । तेरे द्रव्यका एक भी गुण परमें मिल नहीं
जाता । ऐसा तेरा द्रव्य अत्यन्त शुद्ध है उसे तू
पहिचान । अपना अस्तित्व पहिचाननेसे परसे पृथक्त्व
ज्ञात होता ही है ।।१६०।।
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बहिनश्रीके वचनामृत