Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 159-160.

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होकर व्यर्थ प्रयत्न करता है ? जिस प्रकार
मरीचिकामेंसे कभी किसीको जल नहीं मिला है उसी
प्रकार बाहर सुख है ही नहीं ।।१५८।।
गुरु तेरे गुणोंके विकासकी कला बतलायँगे ।
गुरु-आज्ञामें रहना वह तो परम सुख है । कर्मजनित
विभावमें जीव दब रहा है । गुरुकी आज्ञामें वर्तनेसे
कर्म सहज ही दब जाते हैं और गुण प्रगट होते
हैं ।।१५९।।
जिस प्रकार कमल कीचड़ और पानीसे पृथक् ही
रहता है उसी प्रकार तेरा द्रव्य कर्मके बीच रहते हुए
भी कर्मसे भिन्न ही है; वह अतीत कालमें एकमेक
नहीं था, वर्तमानमें नहीं है और भविष्यमें नहीं
होगा । तेरे द्रव्यका एक भी गुण परमें मिल नहीं
जाता । ऐसा तेरा द्रव्य अत्यन्त शुद्ध है उसे तू
पहिचान । अपना अस्तित्व पहिचाननेसे परसे पृथक्त्व
ज्ञात होता ही है ।।१६०।।
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बहिनश्रीके वचनामृत