संसारसे भयभीत जीवोंको किसी भी प्रकार
आत्मार्थका पोषण हो ऐसा उपदेश गुरु देते हैं ।
गुरुका आशय समझनेके लिये शिष्य प्रयत्न करता
है । गुरुकी किसी भी बातमें उसे शंका नहीं होती
कि गुरु यह क्या कहते हैं ! वह ऐसा विचारता है
कि गुरु कहते हैं वह तो सत्य ही है, मैं नहीं समझ
सकता वह मेरी समझका दोष है ।।१६१।।
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द्रव्य सदा निर्लेप है । स्वयं ज्ञाता भिन्न ही तैरता
है । जिस प्रकार स्फ टिकमें प्रतिबिम्ब दिखने पर भी
स्फ टिक निर्मल है, उसी प्रकार जीवमें विभाव ज्ञात
होने पर भी जीव निर्मल है — निर्लेप है। ज्ञायकरूप
परिणमित होने पर पर्यायमें निर्लेपता होती है । ‘ये
सब जो कषाय — विभाव ज्ञात होते हैं वे ज्ञेय हैं, मैं
तो ज्ञायक हूँ’ ऐसा पहिचाने — परिणमन करे तो प्रगट
निर्लेपता होती है ।।१६२।।
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आत्मा तो चैतन्यस्वरूप, अनंत अनुपम गुणवाला
चमत्कारिक पदार्थ है । ज्ञायकके साथ ज्ञान ही नहीं,
बहिनश्रीके वचनामृत
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