Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 161-163.

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संसारसे भयभीत जीवोंको किसी भी प्रकार
आत्मार्थका पोषण हो ऐसा उपदेश गुरु देते हैं ।
गुरुका आशय समझनेके लिये शिष्य प्रयत्न करता
है । गुरुकी किसी भी बातमें उसे शंका नहीं होती
कि गुरु यह क्या कहते हैं ! वह ऐसा विचारता है
कि गुरु कहते हैं वह तो सत्य ही है, मैं नहीं समझ
सकता वह मेरी समझका दोष है ।।१६१।।
द्रव्य सदा निर्लेप है । स्वयं ज्ञाता भिन्न ही तैरता
है । जिस प्रकार स्फ टिकमें प्रतिबिम्ब दिखने पर भी
स्फ टिक निर्मल है, उसी प्रकार जीवमें विभाव ज्ञात
होने पर भी जीव निर्मल हैनिर्लेप है। ज्ञायकरूप
परिणमित होने पर पर्यायमें निर्लेपता होती है । ‘ये
सब जो कषायविभाव ज्ञात होते हैं वे ज्ञेय हैं, मैं
तो ज्ञायक हूँ’ ऐसा पहिचानेपरिणमन करे तो प्रगट
निर्लेपता होती है ।।१६२।।
आत्मा तो चैतन्यस्वरूप, अनंत अनुपम गुणवाला
चमत्कारिक पदार्थ है । ज्ञायकके साथ ज्ञान ही नहीं,
बहिनश्रीके वचनामृत
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