पूज्य बहिनश्रीके श्रीमुखसे प्रवाहित प्रवचनधारामेंसे झेले गये
अमृतबिन्दुओंके इस लघु संग्रहकी तात्त्विक वस्तु अति उच्च कोटिकी है ।
उसमें आत्मार्थप्रेरक अनेक विषय आ गये हैं । कहीं न रुचे तो आत्मामें
रुचि लगा; आत्माकी लगन लगे तो जरूर मार्ग हाथ आये; ज्ञानीकी सहज
परिणति; अशरण संसारमें वीतराग देव-गुरु-धर्मका ही शरण;
स्वभावप्राप्तिके लिये यथार्थ भूमिकाका स्वरूप; मोक्षमार्गमें प्रारम्भसे लेकर
पूर्णता तक पुरुषार्थकी ही महत्ता; द्रव्यद्रष्टि और स्वानुभूतिका स्वरूप तथा
उसकी चमत्कारिक महिमा; गुरुभक्ति की तथा गुरुदेवकी भवान्तकारिणी
वाणीकी अद्भुत महिमा; मुनिदशाका अंतरंग स्वरूप तथा उसकी महिमा;
निर्विकल्पदशा – ध्यानका स्वरूप; केवलज्ञानकी महिमा; शुद्धाशुद्ध समस्त
पर्याय विरहित सामान्य द्रव्यस्वभाव वह द्रष्टिका विषय; ज्ञानीको भक्ति -
शास्त्रस्वाध्याय आदि प्रसंगोंमें ज्ञातृत्वधारा तो अखण्डितरूपसे अंदर
अलग ही कार्य करती रहती है; अखण्ड परसे द्रष्टि छूट जाये तो
साधकपना ही न रहे; शुद्ध शाश्वत चैतन्यतत्त्वके आश्रयरूप स्ववशपनेसे
शाश्वत सुख प्रगट होता है; — इत्यादि विविध अनेक विषयोंका सादी
तथापि प्रभावशाली सचोट भाषामें सुन्दर निरूपण हुआ है ।
इस ‘बहिनश्रीके वचनामृत’ पुस्तकके गुजराती भाषामें अभी तक
सात संस्करण (४७,१०० प्रतियाँ) प्रकाशित हुए हैं। इसका गुजराती
प्रथम संस्करण पढ़कर हिन्दीभाषी अनेक मुमुक्षुओंने यह भावना प्रगट
की थी कि — पूज्य बहिनश्रीके मुखारविन्दसे निकले हुए इस
स्वानुभवसयुक्त अध्यात्मपीयूषका — इस वचनामृतसंग्रका--हिन्दी भाषान्तर
कराकर प्रकाशित किया जाय तो हिन्दीभाषी अध्यात्मतत्त्वपिपासु जनता
इससे बहुत लाभान्वित हो । उस माँगके फलस्वरूप, ‘आत्मधर्म’ हिन्दी
पत्रके भूतपूर्व अनुवादक श्री मगनलालजी जैनके पास सरल एवं रोचक
हिन्दी भाषान्तर कराकर अभी तक इसके चार संस्करण (२६,०००
प्रतियां) प्रकाशित हो चूके हैं । अब यह पुस्तक अप्राप्य होनेसे तथा
उसके लिये मुमुक्षुओंकी माँगको लेकर इसका पंचम संस्करण (१०००
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