Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 172-173.

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चैतन्यकी समीपता नहीं होती । परन्तु चैतन्यकी
महिमापूर्वक जिसे विभावोंकी महिमा छूट जाय,
चैतन्यकी कोई अपूर्वता लगनेसे संसारकी महिमा छूट
जाय, वह चैतन्यके समीप आता है । चैतन्य तो कोई
अपूर्व वस्तु है; उसकी पहिचान करनी चाहिये, महिमा
करनी चाहिये ।।१७१।।
जैसे कोई राजमहलको पाकर फि र बाहर आये तो
खेद होता है, वैसे ही सुखधाम आत्माको प्राप्त करके
बाहर आ जाने पर खेद होता है । शांति और
आनन्दका स्थान आत्मा ही है, उसमें दुःख एवं
मलिनता नहीं हैऐसी द्रष्टि तो ज्ञानीको निरंतर रहती
है ।।१७२।।
आँखमें किरकिरी नहीं समाती, उसी प्रकार
विभावका अंश हो तब तक स्वभावकी पूर्णता नहीं
होती । अल्प संज्वलनकषाय भी है तब तक
वीतरागता और केवलज्ञान नहीं होता ।।१७३।।
बहिनश्रीके वचनामृत
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