चैतन्यकी समीपता नहीं होती । परन्तु चैतन्यकी
महिमापूर्वक जिसे विभावोंकी महिमा छूट जाय,
चैतन्यकी कोई अपूर्वता लगनेसे संसारकी महिमा छूट
जाय, वह चैतन्यके समीप आता है । चैतन्य तो कोई
अपूर्व वस्तु है; उसकी पहिचान करनी चाहिये, महिमा
करनी चाहिये ।।१७१।।
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जैसे कोई राजमहलको पाकर फि र बाहर आये तो
खेद होता है, वैसे ही सुखधाम आत्माको प्राप्त करके
बाहर आ जाने पर खेद होता है । शांति और
आनन्दका स्थान आत्मा ही है, उसमें दुःख एवं
मलिनता नहीं है — ऐसी द्रष्टि तो ज्ञानीको निरंतर रहती
है ।।१७२।।
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आँखमें किरकिरी नहीं समाती, उसी प्रकार
विभावका अंश हो तब तक स्वभावकी पूर्णता नहीं
होती । अल्प संज्वलनकषाय भी है तब तक
वीतरागता और केवलज्ञान नहीं होता ।।१७३।।
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बहिनश्रीके वचनामृत
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