परिणमित होकर विशेष स्थिरता होनेसे साम्यभाव
प्रगट होता है ।।१७६।।
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चैतन्यकी स्वानुभूतिरूप खिले हुए नन्दनवनमें
साधक आत्मा आनन्दमय विहार करता है । बाहर
आने पर कहीं रस नहीं आता ।।१७७।।
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पहले ध्यान सच्चा नहीं होता । पहले ज्ञान सच्चा
होता है कि — मैं इन शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि
सबसे पृथक् हूँ; अंतरमें जो विभाव होता है वह मैं
नहीं हूँ; ऊँचेसे ऊँचे जो शुभभाव वह मैं नहीं हूँ;
मैं तो सबसे भिन्न ज्ञायक हूँ ।।१७८।।
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ध्यान वह साधकका कर्तव्य है । परन्तु वह तुझसे
न हो तो श्रद्धा तो बराबर अवश्य करना । तुझमें
अगाध शक्ति भरी है; उसका यथार्थ श्रद्धान तो
अवश्य करने योग्य है ।।१७९।।
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बहिनश्रीके वचनामृत
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