बहिनश्रीके वचनामृत
‘विकल्प छोड़ दूँ’, ‘विकल्प छोड़ दूँ’ — ऐसा करनेसे विकल्प नहीं छूटते । मैं यह ज्ञायक हूँ, अनंत विभूतिसे भरपूर तत्त्व हूँ — इस प्रकार अंतरसे भेदज्ञान करे तो उसके बलसे निर्विकल्पता हो, विकल्प छूट जायँ ।।१८२।।
चैतन्यदेव रमणीय है, उसे पहिचान । बाहर रमणीयता नहीं है । शाश्वत आत्मा रमणीय है, उसे ग्रहण कर । क्रियाकाण्डके आडंबर, विविध विकल्परूप कोलाहल, उस परसे द्रष्टि हटा ले; आत्मा आडंबर रहित, निर्विकल्प है, वहाँ द्रष्टि लगा; चैतन्यरमणता रहित विकल्पोंके कोलाहलमें तुझे थकान लगेगी, विश्राम नहीं मिलेगा; तेरा विश्रामगृह आत्मा है; उसमें जा तो तुझे थकान नहीं लगेगी, शान्ति प्राप्त होगी ।।१८३।।
चैतन्यकी ओर झुकनेका प्रयत्न होने पर उसमें ब. व. ५