Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 185.

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बहिनश्रीके वचनामृत

ज्ञानकी वृद्धि, दर्शनकी वृद्धि, चारित्रकी वृद्धि सर्ववृद्धि होती है; अंतरमें आवश्यक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, व्रत, तप सब प्रगट होता है । बाह्य क्रियाकाण्ड तो परमार्थतः कोलाहल है । शुभ भाव भूमिकानुसार आते हैं परन्तु वह शान्तिका मार्ग नहीं है । स्थिर होकर अंतरमें बैठ जाना वही कर्तव्य है ।।१८४।।

मुनिराज कहते हैं :चैतन्यपदार्थ पूर्णतासे भरा है । उसके अन्दर जाना और आत्मसम्पदाकी प्राप्ति करना वही हमारा विषय है । चैतन्यमें स्थिर होकर अपूर्वताकी प्राप्ति नहीं की, अवर्णनीय समाधि प्राप्त नहीं की, तो हमारा जो विषय है वह हमने प्रगट नहीं किया । बाहरमें उपयोग आता है तब द्रव्य-गुण- पर्यायके विचारोंमें रुकना होता है, किन्तु वास्तवमें वह हमारा विषय नहीं है । आत्मामें नवीनताओंका भण्डार है । भेदज्ञानके अभ्यास द्वारा यदि वह नवीनताअपूर्वता प्रगट नहीं की, तो मुनिपनेमें जो करना था वह हमने नहीं किया ।।१८५।।