बहिनश्रीके वचनामृत
गृहस्थाश्रममें वैराग्य होता है परन्तु मुनिराजका वैराग्य कोई और ही होता है । मुनिराज तो वैराग्य- महलके शिखरके शिखामणि हैं ।।१८६।।
मुनि आत्माके अभ्यासमें परायण हैं । वे बारम्बार आत्मामें जाते हैं । सविकल्प दशामें भी मुनिपनेकी मर्यादा लाँघकर विशेष बाहर नहीं जाते । मर्यादा छोड़कर विशेष बाहर जायँ तो अपनी मुनिदशा ही न रहे ।।१८७।।
जो न हो सके वह कार्य करनेकी बुद्धि करना मूर्खताकी बात है । अनादिसे यह जीव जो नहीं हो सकता उसे करनेकी बुद्धि करता है और जो हो सकता है वह नहीं करता । मुनिराजको परके कर्तृत्वकी बुद्धि तो छूट गई है और आहार-विहारादिके अस्थिरतारूप विकल्प भी बहुत ही मंद होते हैं । उपदेशका प्रसंग आये तो उपदेश देते हैं, परन्तु विकल्पका जाल नहीं चलता ।।१८८।।