Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 189-191.

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अपनी द्रष्टिकी डोर चैतन्य पर बाँध दे । पतंग
आकाशमें उड़ायें परन्तु डोर हाथमें रहती है, उसी
प्रकार द्रष्टिकी डोर चैतन्यमें बाँध दे, फि र भले
उपयोग बाहर जाता हो । अनादि-अनंत अद्भुत
आत्माकापरम पारिणामिक भावरूप अखण्ड एक
भावकाअवलम्बन ले । परिपूर्ण आत्माका आश्रय
करेगा तो पूर्णता आयगी । गुरुकी वाणी प्रबल
निमित्त है परन्तु समझकर आश्रय तो अपनेको ही
करना है ।।१८९।।
मैंने अनादिकालसे सब बाहर-बाहरका ग्रहण
कियाबाहरका ज्ञान किया, बाहरका ध्यान किया,
बाहरका मुनिपना धारण किया, और मान लिया कि
मैंने बहुत किया । शुभभाव किये परन्तु द्रष्टि पर्याय
पर थी । अगाध शक्ति वान जो चैतन्यचक्रवर्ती उसे
नहीं पहिचाना, नहीं ग्रहण किया । सामान्यस्वरूपको
ग्रहण नहीं किया, विशेषको ग्रहण किया ।।१९०।।
द्रष्टिकी डोर हाथमें रख । सामान्य स्वरूपको ग्रहण
कर, फि र भले ही सब ज्ञान हो । ऐसा करते-करते
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बहिनश्रीके वचनामृत