Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 189-191.

< Previous Page   Next Page >


Page 68 of 212
PDF/HTML Page 83 of 227

 

६८ ]

बहिनश्रीके वचनामृत

अपनी द्रष्टिकी डोर चैतन्य पर बाँध दे । पतंग आकाशमें उड़ायें परन्तु डोर हाथमें रहती है, उसी प्रकार द्रष्टिकी डोर चैतन्यमें बाँध दे, फि र भले उपयोग बाहर जाता हो । अनादि-अनंत अद्भुत आत्माकापरम पारिणामिक भावरूप अखण्ड एक भावकाअवलम्बन ले । परिपूर्ण आत्माका आश्रय करेगा तो पूर्णता आयगी । गुरुकी वाणी प्रबल निमित्त है परन्तु समझकर आश्रय तो अपनेको ही करना है ।।१८९।।

मैंने अनादिकालसे सब बाहर-बाहरका ग्रहण कियाबाहरका ज्ञान किया, बाहरका ध्यान किया, बाहरका मुनिपना धारण किया, और मान लिया कि मैंने बहुत किया । शुभभाव किये परन्तु द्रष्टि पर्याय पर थी । अगाध शक्ति वान जो चैतन्यचक्रवर्ती उसे नहीं पहिचाना, नहीं ग्रहण किया । सामान्यस्वरूपको ग्रहण नहीं किया, विशेषको ग्रहण किया ।।१९०।।

द्रष्टिकी डोर हाथमें रख । सामान्य स्वरूपको ग्रहण कर, फि र भले ही सब ज्ञान हो । ऐसा करते-करते