अंतरमें विशेष लीनता होगी, साधक दशा बढ़ती
जायगी । देशव्रत और महाव्रत सामान्य स्वरूपके
आलम्बनसे आते हैं; मुख्यता निरंतर सामान्य
स्वरूपकी — द्रव्यकी होती है ।।१९१।।
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आत्मा तो निवृत्तस्वरूप — शान्तस्वरूप है ।
मुनिराजको उसमेंसे बाहर आना प्रवृत्तिरूप लगता
है । उच्चसे उच्च शुभभाव भी उन्हें बोझरूप लगते
हैं — मानों पर्वत उठाना हो । शाश्वत आत्माकी ही
उग्र धुन लगी है । आत्माके प्रचुर स्वसंवेदनमेंसे
बाहर आना नहीं सुहाता ।।१९२।।
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सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञायकको ज्ञायक द्वारा ही अपनेमें
धारण कर रखता है, टिकाए रखता है, स्थिर रखता
है — ऐसी सहज दशा होती है ।
सम्यग्द्रष्टि जीवको तथा मुनिको भेदज्ञानकी
परिणति तो चलती ही रहती है । सम्यग्द्रष्टि गृहस्थको
उसकी दशाके अनुसार उपयोग अंतरमें जाता है और
बहिनश्रीके वचनामृत
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