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बाहर आता है; मुनिराजको तो उपयोग अति शीघ्रतासे बारम्बार अंतरमें उतर जाता है । भेद- ज्ञानकी परिणति — ज्ञातृत्वधारा — दोनोंके चलती ही रहती है । उन्हें भेदज्ञान प्रगट हुआ तबसे कोई काल पुरुषार्थ रहित नहीं होता । अविरत सम्यग्द्रष्टिको चौथे गुणस्थानके अनुसार और मुनिको छठवें-सातवें गुणस्थानके अनुसार पुरुषार्थ वर्तता रहता है । पुरुषार्थके बिना कहीं परिणति स्थिर नहीं रहती । सहज भी है, पुरुषार्थ भी है ।।१९३।।
पूज्य गुरुदेवने मोक्षका शाश्वत मार्ग अंतरमें बतलाया है, उस मार्ग पर जा ।।१९४।।
सबको एक ही करना है : — प्रतिक्षण आत्माको ही ऊर्ध्व रखना, आत्माकी ही प्रमुखता रखना । जिज्ञासुकी भूमिकामें भी आत्माको ही अधिक रखनेका अभ्यास करना ।।१९५।।