स्वरूप तो सहज ही है, सुगम ही है; अनभ्यासके
कारण दुर्गम लगता है । कोई दूसरेकी संगतमें पड़
गया हो तो उसे वह संग छोड़ना दुष्कर मालूम होता
है; वास्तवमें दुष्कर नहीं है, आदतके कारण दुष्कर
मानता है । परसंग छोड़कर स्वयं स्वतंत्ररूपसे अलग
रहना उसमें दुष्करता कैसी ? वैसे ही अपना स्वभाव
प्राप्त करना उसमें दुष्करता कैसी ? वह तो सुगम ही
होगा न ? १९६।।
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प्रज्ञाछैनीको शुभाशुभ भाव और ज्ञानकी सूक्ष्म
अंतःसंधिमें पटकना । उपयोगको बराबर सूक्ष्म
करके उन दोनोंकी संधिमें सावधान होकर उसका
प्रहार करना । सावधान होकर अर्थात् बराबर सूक्ष्म
उपयोग करके, बराबर लक्षण द्वारा पहिचानकर ।
अभ्रकके पर्त कितने पतले होते हैं, किन्तु उन्हें
बराबर सावधानीपूर्वक अलग किया जाता है, उसी
प्रकार सूक्ष्म उपयोग करके स्वभाव-विभावके बीच
प्रज्ञा द्वारा भेद कर । जिस क्षण विभावभाव वर्तता
है उसी समय ज्ञातृत्वधारा द्वारा स्वभावको भिन्न
जान ले । भिन्न ही है परन्तु तुझे नहीं भासता ।
बहिनश्रीके वचनामृत
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