Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 196-197.

< Previous Page   Next Page >


Page 71 of 212
PDF/HTML Page 86 of 227

 

बहिनश्रीके वचनामृत

[ ७१

स्वरूप तो सहज ही है, सुगम ही है; अनभ्यासके कारण दुर्गम लगता है । कोई दूसरेकी संगतमें पड़ गया हो तो उसे वह संग छोड़ना दुष्कर मालूम होता है; वास्तवमें दुष्कर नहीं है, आदतके कारण दुष्कर मानता है । परसंग छोड़कर स्वयं स्वतंत्ररूपसे अलग रहना उसमें दुष्करता कैसी ? वैसे ही अपना स्वभाव प्राप्त करना उसमें दुष्करता कैसी ? वह तो सुगम ही होगा न ? १९६।।

प्रज्ञाछैनीको शुभाशुभ भाव और ज्ञानकी सूक्ष्म अंतःसंधिमें पटकना । उपयोगको बराबर सूक्ष्म करके उन दोनोंकी संधिमें सावधान होकर उसका प्रहार करना । सावधान होकर अर्थात् बराबर सूक्ष्म उपयोग करके, बराबर लक्षण द्वारा पहिचानकर ।

अभ्रकके पर्त कितने पतले होते हैं, किन्तु उन्हें बराबर सावधानीपूर्वक अलग किया जाता है, उसी प्रकार सूक्ष्म उपयोग करके स्वभाव-विभावके बीच प्रज्ञा द्वारा भेद कर । जिस क्षण विभावभाव वर्तता है उसी समय ज्ञातृत्वधारा द्वारा स्वभावको भिन्न जान ले । भिन्न ही है परन्तु तुझे नहीं भासता ।