बहिनश्रीके वचनामृत
स्वभावकी महिमासे परपदार्थोंके प्रति रसबुद्धि — सुखबुद्धि टूट जाती है । स्वभावमें ही रस आता है, दूसरा सब नीरस लगता है । तभी अंतरकी सूक्ष्म संधि ज्ञात होती है । ऐसा नहीं होता कि परमें तीव्र रुचि हो और उपयोग अंतरमें प्रज्ञाछैनीका कार्य करे ।।१९७।।
ज्ञातापनेके अभ्याससे ज्ञातापना प्रगट होने पर कर्तापना छूटता है । विभाव अपना स्वभाव नहीं है इसलिये कहीं आत्मद्रव्य स्वयं उछलकर विभावमें एकमेक नहीं हो जाता, द्रव्य तो शुद्ध रहता है; मात्र अनादिकालीन मान्यताके कारण ‘पर ऐसे जड़ पदार्थको मैं करता हूँ, रागादि मेरा स्वरूप हैं, मैं सचमुच विभावका कर्ता हूँ’ इत्यादि भ्रमणा हो रही है । यथार्थ ज्ञातृत्वधारा प्रगट हो तो कर्तापना छूटता है ।।१९८।।
जीवको अटकनेके जो अनेक प्रकार हैं उन सबमेंसे विमुख हो और मात्र चैतन्यदरबारमें ही