Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 198-199.

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स्वभावकी महिमासे परपदार्थोंके प्रति रसबुद्धि
सुखबुद्धि टूट जाती है । स्वभावमें ही रस आता है,
दूसरा सब नीरस लगता है । तभी अंतरकी सूक्ष्म
संधि ज्ञात होती है । ऐसा नहीं होता कि परमें तीव्र
रुचि हो और उपयोग अंतरमें प्रज्ञाछैनीका कार्य
करे ।।१९७।।
ज्ञातापनेके अभ्याससे ज्ञातापना प्रगट होने पर
कर्तापना छूटता है । विभाव अपना स्वभाव नहीं है
इसलिये कहीं आत्मद्रव्य स्वयं उछलकर विभावमें
एकमेक नहीं हो जाता, द्रव्य तो शुद्ध रहता है; मात्र
अनादिकालीन मान्यताके कारण ‘पर ऐसे जड़
पदार्थको मैं करता हूँ, रागादि मेरा स्वरूप हैं, मैं
सचमुच विभावका कर्ता हूँ’ इत्यादि भ्रमणा हो रही
है । यथार्थ ज्ञातृत्वधारा प्रगट हो तो कर्तापना छूटता
है ।।१९८।।
जीवको अटकनेके जो अनेक प्रकार हैं उन
सबमेंसे विमुख हो और मात्र चैतन्यदरबारमें ही
बहिनश्रीके वचनामृत
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