उपयोगको लगा दे; अवश्य प्राप्ति होगी ही । अनन्त-
अनन्त कालसे अनंत जीवोंने इसी प्रकार पुरुषार्थ
किया है, इसलिये तू भी ऐसा कर ।
अनन्त-अनन्त काल गया, जीव कहीं न कहीं
अटकता ही है न ? अटकनेके तो अनेक-अनेक प्रकार
हैं; किन्तु सफल होनेका एक ही प्रकार है — वह है
चैतन्यदरबारमें जाना । स्वयं कहाँ अटकता है उसका
यदि स्वयं ख्याल करे तो बराबर जान सकता है ।
द्रव्यलिंगी साधु होकर भी जीव कहीं सूक्ष्मरूपसे
अटक जाता है, शुभ भावकी मिठासमें रुक जाता है,
‘यह रागकी मंदता, यह अट्ठाईस मूलगुण, — बस
यही मैं हूँ, यही मोक्षका मार्ग है’, इत्यादि किसी
प्रकार संतुष्ट होकर अटक जाता है; परन्तु यह
अंतरमें विकल्पोंके साथ एकताबुद्धि तो पड़ी ही है
उसे क्यों नहीं देखता ? अंतरमें यह शांति क्यों नहीं
दिखायी देती ? पापभावको त्यागकर ‘सर्वस्व कर
लिया’ मानकर संतुष्ट हो जाता है । सच्चे
आत्मार्थीको तथा सम्यग्द्रष्टिको तो ‘अभी बहुत बाकी
है, बहुत बाकी है’ — इस प्रकार पूर्णता तक बहुत
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बहिनश्रीके वचनामृत