Benshreeke Vachanamrut (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 74 of 212
PDF/HTML Page 89 of 227

 

७४ ]

बहिनश्रीके वचनामृत

उपयोगको लगा दे; अवश्य प्राप्ति होगी ही । अनन्त- अनन्त कालसे अनंत जीवोंने इसी प्रकार पुरुषार्थ किया है, इसलिये तू भी ऐसा कर ।

अनन्त-अनन्त काल गया, जीव कहीं न कहीं अटकता ही है न ? अटकनेके तो अनेक-अनेक प्रकार हैं; किन्तु सफल होनेका एक ही प्रकार हैवह है चैतन्यदरबारमें जाना । स्वयं कहाँ अटकता है उसका यदि स्वयं ख्याल करे तो बराबर जान सकता है ।

द्रव्यलिंगी साधु होकर भी जीव कहीं सूक्ष्मरूपसे अटक जाता है, शुभ भावकी मिठासमें रुक जाता है, ‘यह रागकी मंदता, यह अट्ठाईस मूलगुण,बस यही मैं हूँ, यही मोक्षका मार्ग है’, इत्यादि किसी प्रकार संतुष्ट होकर अटक जाता है; परन्तु यह अंतरमें विकल्पोंके साथ एकताबुद्धि तो पड़ी ही है उसे क्यों नहीं देखता ? अंतरमें यह शांति क्यों नहीं दिखायी देती ? पापभावको त्यागकर ‘सर्वस्व कर लिया’ मानकर संतुष्ट हो जाता है । सच्चे आत्मार्थीको तथा सम्यग्द्रष्टिको तो ‘अभी बहुत बाकी है, बहुत बाकी है’इस प्रकार पूर्णता तक बहुत