बहिनश्रीके वचनामृत
निश्चयनयके विषयभूत जो अखण्ड ज्ञायक कहा है वही यह ‘अपरिणामी’ निजात्मा ।
प्रमाण-अपेक्षासे आत्मद्रव्य मात्र अपरिणामी ही नहीं है, अपरिणामी तथा परिणामी है । परन्तु अपरिणामी तत्त्व पर द्रष्टि देनेसे परिणाम गौण हो जाते हैं; परिणाम कहीं चले नहीं जाते । परिणाम कहाँ चले जायँ ? परिणमन तो पर्यायस्वभावके कारण होता ही रहता है, सिद्धमें भी परिणति तो होती है ।
परन्तु अपरिणामी तत्त्व पर — ज्ञायक पर — द्रष्टि ही सम्यक् द्रष्टि है । इसलिये ‘यह मेरी ज्ञानकी पर्याय’ ‘यह मेरी द्रव्यकी पर्याय’ इस प्रकार पर्यायमें किसलिये रुकता है ? निष्क्रिय तत्त्व पर — तल पर — द्रष्टि स्थापित कर न !
परिणाम तो होते ही रहेंगे । परन्तु, यह मेरी अमुक गुणपर्याय हुई, यह मेरे ऐसे परिणाम हुए — ऐसा जोर किसलिये देता है ? पर्यायमें — पलटते अंशमें — द्रव्यका परिपूर्ण नित्य सामर्थ्य थोड़ा ही आता है ? उस परिपूर्ण नित्य सामर्थ्यका अवलम्बन कर न !