ज्ञानानन्दसागरकी तरंगोंको न देखकर उसके दल
पर द्रष्टि स्थापित कर । तरंगें तो उछलती ही रहेंगी;
तू उनका अवलम्बन किसलिये लेता है ?
अनंत गुणोंके भेद परसे भी द्रष्टि हटा ले ।
अनंत गुणमय एक नित्य निजतत्त्व — अपरिणामी
अभेद एक दल — उसमें द्रष्टि दे । पूर्ण नित्य
अभेदका जोर ला; तू ज्ञाताद्रष्टा हो जायगा ।।२०१।।
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द्रढ़ प्रतीति करके, सूक्ष्म उपयोगवाला होकर,
द्रव्यमें गहरे उतर जा, द्रव्यके पातालमें जा । वहाँसे
तुझे शान्ति एवं आनन्द प्राप्त होगा । खूब धीर-
गंभीर होकर द्रव्यके तलका स्पर्श कर ।।२०२।।
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यह सर्वत्र — बाहर — स्थूल उपयोग हो रहा है,
उसे सब जगहसे उठाकर, अत्यन्त धीर होकर,
द्रव्यको पकड़ । वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं,
द्रव्येन्द्रिय भी नहीं और भावेन्द्रिय भी द्रव्यका स्वरूप
नहीं है । यद्यपि भावेन्द्रिय है तो जीवकी ही पर्याय,
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बहिनश्रीके वचनामृत