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चैतन्यदेवनी ओथ ले, तेना शरणे जा; तारां बधां कर्मो तूटीने नाश थई जशे. चक्रवर्ती रस्तेथी नीकळे तो अपराधी जीवो ध्रूजी ऊठे छे, तो आ तो त्रण लोकनो बादशाह — चैतन्यचक्रवर्ती! तेनी पासे जड कर्म ऊभां ज क्यांथी रहे? २४२.
ज्ञायक आत्मा नित्य अने अभेद छे; द्रष्टिना विषयभूत एवा तेना स्वरूपमां अनित्य शुद्धाशुद्ध पर्यायो के गुणभेद कांई छे ज नहि. प्रयोजननी सिद्धि माटे ए ज परमार्थ-आत्मा छे. तेना ज आश्रये धर्म प्रगट थाय छे. २४३.
ओहो! आत्मा तो अनंती विभूतिथी भरेलो, अनंता गुणोनो राशि, अनंता गुणोनो मोटो पर्वत छे! चारे तरफ गुणो ज भरेला छे, अवगुण एक पण नथी. ओहो! आ हुं? आवा आत्मानां दर्शन माटे जीवे कदी खरुं कुतूहल ज कर्युं नथी. २४४.
‘हुं मुक्त ज छुं. मारे कंई जोईतुं नथी. हुं तो परिपूर्ण द्रव्यने पकडीने बेठो छुं.’ — आम ज्यां अंदरमां