तेने बहार आववुं गमतुं ज नथी. स्वभाव शान्ति अने निवृत्तिरूप छे, शुभाशुभ विभावभावोमां आकुळता अने प्रवृत्ति छे; ते बन्नेने मेळ न ज खाय. २८०.
बहारनां बधां कार्यमां सीमा — मर्यादा होय. अमर्यादित तो अन्तर्ज्ञान अने आनंद छे. त्यां सीमा — मर्यादा नथी. अंदरमां — स्वभावमां मर्यादा होय नहि. जीवने अनादि काळथी जे बाह्य वृत्ति छे तेनी जो मर्यादा न होय तो तो जीव कदी पाछो ज न वळे, बाह्यमां ज सदा रोकाई जाय. अमर्यादित तो आत्मस्वभाव ज छे. आत्मा अगाध शक्तिनो भरेलो छे. २८१.
आ जे बहारनो लोक छे तेनाथी चैतन्यलोक जुदो ज छे. बहारमां माणसो देखे के ‘आणे आम कर्युं, आम कर्युं,’ पण अंदरमां ज्ञानी क्यां रहे छे, शुं करे छे, ते ज्ञानी पोते ज जाणे छे. बहारथी जोनार माणसोने ज्ञानी बहारमां कांईक क्रियाओ करता के विकल्पोमां जोडाता देखाय, पण अंदरमां तो तेओ क्यांय ऊंडे चैतन्यलोकमां विचरता होय छे. २८२.