ज्ञानरूप स्वभाव तेने अनुकूळ छे, राग-द्वेषरूप विभाव प्रतिकूळ छे. २९९.
परिभ्रमण करतां अनंत काळ वीत्यो. ते अनंत काळमां जीवे ‘आत्मानुं करवुं छे’ एवी भावना तो करी पण तत्त्वरुचि अने तत्त्वमंथन कर्युं नहि. पोसाणमां तो एक आत्मा ज पोषाय तेवुं जीवन करी नाखवुं जोईए. ३००.
जीव राग अने ज्ञाननी एकतामां गूंचवाई गयो छे. निज अस्तित्वने पकडे तो गूंचवण नीकळी जाय. ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवुं अस्तित्व ख्यालमां आववुं जोईए. ‘ज्ञायक सिवायनुं बीजुं बधुं पर छे’ एम तेमां आवी गयुं. ३०१.
ज्ञानीने संसारनुं कांई जोईतुं नथी; ते संसारथी भयभीत छे. ते मोक्षना मार्गे चाले छे, संसारने पीठ दीधी छे. स्वभावमां सुभट छे, अंदरथी निर्भय छे, कोईथी डरता नथी. कोई उपसर्गनो भय नथी. मारामां कोईनो प्रवेश नथी — एम निर्भय छे. विभावने तो काळा नागनी जेम छोडी दीधो छे. ३०२.