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स्वभावमां नथी. द्रव्यद्रष्टि करवाथी ज आगळ जवाय छे, शुद्ध पर्यायनी द्रष्टिथी पण आगळ जवातुं नथी. द्रव्यद्रष्टिमां मात्र शुद्ध अखंड द्रव्यसामान्यनो ज स्वीकार होय छे. ३२१.
ज्ञानीनी द्रष्टि अखंड चैतन्यमां भेद पाडती नथी. साथेनुं ज्ञान विवेक करे छे के ‘आ चैतन्यना भावो छे, आ पर छे’. द्रष्टि अखंड चैतन्यमां भेद पाडवा ऊभी रहेती नथी. द्रष्टि एवा परिणाम न करे के ‘आटलुं तो खरुं, आटली कचाश तो छे’. ज्ञान बधोय विवेक करे छे. ३२२.
जेणे शान्तिनो स्वाद चाख्यो छे तेने राग पालवतो नथी. ते परिणतिमां विभावथी दूर भागे छे. जेम एक बाजु बरफनो ढगलो होय अने बीजी बाजु अग्नि होय तेनी वच्चे ऊभेलो माणस अग्निथी दूर भागतो बरफ तरफ ढळे छे, तेम जेणे थोडा पण सुखनो स्वाद चाख्यो छे, जेने थोडी पण शान्तिनुं वेदन वर्ती रह्युं छे एवो ज्ञानी जीव दाहथी अर्थात् रागथी दूर भागे छे अने शीतळता तरफ ढळे छे. ३२३.