नथी. बाह्य चमत्कारो साधकनुं लक्षण पण नथी. चैतन्यचमत्कारस्वरूप स्वसंवेदन ते ज साधकनुं लक्षण छे. जे ऊंडे ऊंडे रागना एक कणने पण लाभरूप माने छे, तेने आत्मानां दर्शन थतां नथी. निस्पृह एवो थई जा के मारे मारुं अस्तित्व ज जोईए छे, बीजुं कांई जोईतुं नथी. एक आत्मानी ज रढ लागे अने अंदरमांथी उत्थान थाय तो परिणति पलट्या विना रहे नहि. ३५५.
मुनिराजनो निवास चैतन्यदेशमां छे. उपयोग तीखो थईने ऊंडे ऊंडे चैतन्यनी गुफामां चाल्यो जाय छे. बहार आवतां मडदा जेवी दशा होय छे. शरीर प्रत्येनो राग छूटी गयो छे. शान्तिनो सागर प्रगट्यो छे. चैतन्यनी पर्यायना विविध तरंगो ऊछळे छे. ज्ञानमां कुशळ छे, दर्शनमां प्रबळ छे, समाधिना वेदनार छे. अंतरमां तृप्त तृप्त छे. मुनिराज जाणे वीतरागतानी मूर्ति होय ए रीते परिणमी गया छे. देहमां वीतराग दशा छवाई गई छे. जिन नहि पण जिनसरखा छे. ३५६.
आ संसारमां जीव एकलो जन्मे छे, एकलो मरे