वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी ज खबर नथी. ११.
द्रव्यद्रष्टि प्रगटी तेने हवे चैतन्यना तळ उपर ज द्रष्टि छे. तेमां परिणति एकमेक थई गई छे. चैतन्यतळियामां ज सहज द्रष्टि छे. स्वानुभूतिना काळे के बहार उपयोग होय त्यारे पण तळ उपरथी द्रष्टि छूटती नथी, द्रष्टि बहार जती ज नथी. ज्ञानी चैतन्यना पाताळमां पहोंची गया छे; ऊंडी ऊंडी गुफामां, ऊंडे ऊंडे पहोंची गया छे; साधनानी सहज दशा साधेली छे. १२.
‘हुं ज्ञायक ने आ पर’, बाकी बधां जाणवानां पडखां छे. ‘हुं ज्ञायक छुं, बाकी बधुं पर’ — आ एक धाराए ऊपडे तो एमां बधुं आवी जाय छे, पण पोते ऊंडो ऊतरतो ज नथी, करवा धारतो नथी, एटले अघरुं लागे. १३.
‘हुं छुं’ एम पोताथी पोताने अस्तित्वनुं जोर आवे, पोते पोताने ओळखे. पहेलां उपर उपरथी अस्तित्वनुं जोर आवे, पछी अस्तित्वनुं ऊंडाणथी जोर आवे; ए विकल्परूप होय पण भावना जोरदार होय एटले