परंतु अपरिणामी तत्त्व उपर — ज्ञायक उपर — द्रष्टि ते ज सम्यक् द्रष्टि छे. माटे ‘आ मारी ज्ञाननी पर्याय’, ‘आ मारी द्रव्यनी पर्याय’ एम पर्यायमां शुं काम रोकाय छे? निष्क्रिय तत्त्व उपर — तळ उपर — द्रष्टि स्थाप ने!
परिणाम तो थया ज करशे. पण, आ मारी अमुक गुणपर्याय थई, आ मारा आवा परिणाम थया — एम शा माटे जोर आपे छे? पर्यायमां — पलटता अंशमां — द्रव्यनुं परिपूर्ण नित्य सामर्थ्य थोडुं आवे छे? ते परिपूर्ण नित्य सामर्थ्यने अवलंब ने!
ज्ञानानंदसागरनां तरंगोने न जोतां तेना दळ उपर द्रष्टि स्थाप. तरंगो तो ऊछळ्या ज करशे. तुं एमने अवलंबे छे शुं काम?
अनंत गुणोना भेद उपरथी पण द्रष्टि हठावी ले. अनंत गुणमय एक नित्य निजतत्त्व — अपरिणामी अभेद एक दळ — तेमां द्रष्टि दे. पूर्ण नित्य अभेदनुं जोर लाव. तुं ज्ञाताद्रष्टा थई जईश. २०१.
द्रढ प्रतीति करी, सूक्ष्म उपयोगवाळो थई, द्रव्यमां ऊंडो ऊतरी जा, द्रव्यना पाताळमां जा. त्यांथी तने