परिणमी जाय छे, बाकी बधुं काढी नाखे छे.
द्रष्टि एकेय भेदने स्वीकारती नथी. शाश्वत द्रव्य उपर टकेली द्रष्टि ‘मने सम्यग्दर्शन के केवळज्ञान थयुं के नहि’ एम जोवा नथी बेसती. एने — द्रव्यद्रष्टिवाळा जीवने — खबर छे के अनंत काळमां अनंत जीवोए आवी रीते द्रव्य उपर द्रष्टि स्थापीने अनंती विभूति प्रगट करी छे. द्रव्यद्रष्टि होय तो पछी द्रव्यमां जे जे होय ते प्रगट थाय ज; छतां ‘मने सम्यग्दर्शन थयुं, मने अनुभूति थई’ एम द्रष्टि पर्यायमां चोंटी नथी जती. ते तो प्रारंभथी पूर्णता सुधी, बधांने काढी नाखी, द्रव्य उपर ज स्थपायेली रहे छे. कोई पण जातनी आशा वगर तद्दन निस्पृह भावे ज द्रष्टि प्रगट थाय छे. २१६.
द्रव्यमां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बधुं होवा छतां कांई द्रव्य ने पर्याय बंने समान कोटिनां नथी; द्रव्यनी कोटि ऊंची ज छे, पर्यायनी कोटि नानी ज छे. द्रव्यद्रष्टिवाळाने अंदरमां एटला बधा रसकसवाळुं तत्त्व देखाय छे के तेनी द्रष्टि पर्यायमां चोंटती नथी. भले अनुभूति थाय, पण द्रष्टि अनुभूतिमां — पर्यायमां — चोंटी नथी जती. ‘अहो! आवो आश्चर्यकारी द्रव्यस्वभाव प्रगट्यो एटले