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समाधानः- उन्हें आनन्द आता है। प्रभुकी दिव्य वाणी कुछ अपूर्व कहती है, अपूर्वतासे पूर्ण, भगवानकी अगाध रहस्योंसे भरी हुई वाणी है। कोई आत्माका चमत्कार दर्शानेवाली, चैतन्यका स्वरूप दर्शानेवाली कोई अपूर्व वाणी है। अपूर्व महिमा आती है।
यहाँ गुरुदेवकी वाणीमें सब एकसमान ग्रहण कर सकते थे? गुरुदेवकी वाणीका सभीको आश्चर्य लगता था और महिमा आती थी। जो जीव कुछ नहीं समझते थे, कोई अनजान आकर बैठे तो भी ऐसा लगता कि यह वाणी कोई अलग है, ऐसा आश्चर्य लगता था। सब एकसमान समझते नहीं थे तो भी सबको आश्चर्य लगता था।
ये तो भगवानकी वाणी है। एक समयमें लोकालोकको जाननेवाला उनका ज्ञान, ऐसी उनकी भूमिका, एक समयमें जाननेवाला जो केवलज्ञान, उसमेंसे परिणमित होकर जो दिव्यध्वनि छूटती है, उस वाणीकी क्या बात करनी!? सबको एकदम आश्चर्य लगता है। जगतसे निराला कोई अलौकिक उन्हें लगता है। वाणी अभेद-भेद किये बिना निकलती है। जगतसे निराली वाणी। सब क्रमसे बोलते हैं, (उन्हें) क्रम नहीं पडता, एकसाथ अगाध स्वरूपको कहनेवाली (है)। भगवान भिन्न, उनकी वाणी भिन्न, सब भिन्न (है)। इच्छापूर्वक (वाणी) नहीं निकलती। सब मुग्ध हो जाते हैं, मुग्ध होकर सुनते हैं।
मुमुक्षुः- एक समयमें चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप आ जाता होगा? चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप एक समयमें वाणीमें आ जाता है?
समाधानः- एक समयमें भगवान जानते हैं, वाणीमें जो आता है वह बहुत स्वरूप आता है, पूर्णरूपसे आता है, तो भी आत्मा भिन्न है और वाणी भिन्न है। तो भी उसका रहस्य पूरा आ जाता है। चौद ब्रह्माण्ड। अपूर्ण कुछ भी नहीं रहता, पूर्ण आता है। लेकिन आत्मा भिन्न है और वाणी भिन्न है।
... नहीं पडता, लेकिन वाणीमें आता है पूर्ण, तो भी जो चैतन्यमें भरा है वह सब वाणीमें नहीं आता है। अन्दर जो अनुभवपूर्व, भगवानकी अनुभूति केवलज्ञानपूर्वककी, (जिसमें) समुद्र-दरिया भरा है, वह सब वाणीमें (नहीं) आता है, तो भी अनन्त आता है।
कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो।
अन्दर अनुभव जो केवलज्ञान, स्वरूप रमणता जो पूर्ण है वह पूर्ण चैतन्य उछलकर वाणीमें नहीं आता, तो भी पूर्ण आता है, अपूर्ण कुछ नहीं रहता। आता है वह सब पूर्ण आता है, लेकिन उसमें चैतन्यका तल नहीं आ जाता। उसका पूरा रहस्य आ जाता है।