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मुमुक्षुः- एक समयमें रहस्य पूर्ण आ जाता है, फिर भी केवलज्ञानमें जो अनुभूति होती है वह सब नहीं आती।
समाधानः- वह वाणीमें थोडे ही आता है, वाणी और वह भिन्न-भिन्न वस्तु है। वह दर्शाया नहीं जा सकता। तो भी उसका आश्चर्य (लगता है), तो भी दर्शाती है। भगवानकी वाणी चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप दर्शाती है, मुक्तिका मार्ग दर्शाती है, चैतन्यका चमत्कार दर्शाये, चैतन्य कोई अपूर्व वस्तु है, वह सब दर्शाती है।
भगवानकी वाणी सुनकर कितने ही मुनि केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, कोई मुनि बन जाते हैं, कोई सम्यग्दृष्टि होते हैं, कितने ही समवसरणमें हो जाते हैं। कितने ही अंतर्मुहूर्तमें हो जाते हैं। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवानकी वाणी ऐसी जोरदार है कि एकदम हो जाता है। तो भी भगवानकी वाणीकी ऐसी महिमा है।
उनको (गुरुदेवको) स्वयंको आश्चर्य लगता था कि इसमें आचार्यदेवको बहुत कहना है। फिर स्वयं आहा..! करते थे, तो भी उनकी वाणीमें बहुत आता था। गुरुदेव कहते थे, ओहो..! इसमें आचार्यदेवको बहुत (कहना है), ओहो..! इसमें तो बहुत भरा है। तो भी उनको जो कुछ कहना है वह सब मानो अन्दर रह जाता था, तो भी बहुत आता था।
मुमुक्षुः- वाणीमें ऐसा कह सकते हैं कि पूरा आता है, फिर भी बहुत बाकी रह जाता है।
समाधानः- तो भी अन्दर रह जाता है। दो द्रव्य भिन्न है इसलिये। चैतन्य और वाणी (भिन्न-भिन्न हैं)। केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, कितने ही जीव मुनि बन जाते हैं, कितने ही जीव श्रावक बन जाते हैं, कितने ही जीव सम्यग्दृष्टि बनते हैं, कितने! लाखों- लाखों! केवलज्ञानीकी कुछ संख्या होती है, मुनिओंकी कुछ (संख्या होती है), श्रावकोंकी तो कितनी बडी संख्या होती है। धर्मकाल वर्तता है।
मुमुक्षुः- अलौकिक बातें और आश्चर्य उत्पन्न हो ऐसी बातें हैं।
समाधानः- भगवानका बोलना अलग, भगवानका चलना अलग, पूरे जगतसे निराला। और वाणी छूटती है। उपयोग तो अन्दर स्वरूपमें जम गया है। निराधार बैठते हैं। सिंहासन, कमल आदि सबकी रचना इन्द्र करते हैं, फिर भी भगवान तो निराधार होते हैं।
मुमुक्षुः- सब आश्चर्यकारी है।
समाधानः- आश्चर्यकारी। पूर्णता प्राप्त हो गयी इसलिये उनका सब अलग हो जाता है, जगतसे अलग होता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ वर्धमान होनेका कारण होना चाहिये, जीवको ऐसा हो जाता है कि मुझे तो अब धर्मात्माका योग हो गया है, ऐसा होता है, यह गलत है न?