१२ मुझे तो धर्मात्माका योग हो गया है, अब मैं पार हो जाऊँगा, मुझे मोक्ष जानेमें कोई दिक्कत नहीं आयेगी, ऐसा करके पुरुषार्थ कम हो जाये, ऐसा होता है? ऐसा नहीं होना चाहिये।
समाधानः- ऐसा नहीं होना चाहिये। धर्मात्मा मिले लेकिन स्वयंको पुरुषार्थ करना चाहिये। पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- ऐसा नहीं बनता होगा कि पुरुषार्थ किये बिना कोई जीव धर्मात्माके संगसे, संगके कारण प्राप्त कर ले?
समाधानः- पुरुषार्थ किये बिना प्राप्त हो जाये ऐसा नहीं बनता। मात्र संगसे (नहीं होता)।
मुमुक्षुः- मात्र संग कार्यकारी नहीं होता।
समाधानः- मात्र संग (कार्यकारी नहीं होता)। पुरुषार्थ तो स्वयंका (होता है)। निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है कि स्वयंके पुरुषार्थमें सरल हो जाये या मार्ग दर्शाये, उनके सान्निध्यसे स्वयंके परिणाम पुरुषार्थकी ओर मुडे, पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है। लेकिन वह मान ले कि मुझे तो बाहरसे सब निमित्त मिल गये हैं, मुझे कहाँ तकलीफ है? ऐसा करे तो ऐसे प्राप्त नहीं होता। लेकिन उसे देव-गुरु-शास्त्र और सत्संग एवं संतोंकी महिमा आयी हो तो उसे संतकी ऐसी महिमा अन्दरसे हो तो उसे पुरुषार्थ हुए बिना रहता ही नहीं, लेकिन उसे संतकी महिमा ही नहीं आयी है।
गुरुदेवकी महिमा अन्दर आये तो गुरुदेव जो मार्ग दर्शाते हैं, उस मार्गपर उसकी पुरुषार्थकी परिणति मुडे तो ही उसने उस महात्माका स्वीकार किया है, तो उसने गुरुदेवका स्वीकार किया है। वह ऐसा विचार करे कि अब मुझे कहाँ तकलीफ है? तो फिर वह मार्ग समझा नहीं है। वह समझे कि मेरा प्रमाद है, इतना तो उसे ख्यालमें रहना चाहिये न? करना तो स्वयंको ही है। उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है, लेकिन करना तो स्वयंको है। पुरुषार्थकी ओर उसकी गति चले। भले ही धीरे-धीरे (बढे), लेकिन मुडे बिना रहे नहीं, यदि सच्ची महिमा आयी हो तो।
मुमुक्षुः- आत्माका आनन्द जब अनुभवमें आये तो उसे कैसे मालूम पडे कि सूक्ष्म आत्माको ग्रहण किया है, अब उसे आनन्दका अनुभव आता है। और पहले जो दुःखका वेदन होता था, उससे यह अलग लगता है, ऐसा उसे कैसे ख्यालमें आये?
समाधानः- वह ख्यालमें आ जाता है। स्वयंका वेदन अन्दर है, स्वयं अनुभव कर सकता है। आत्माको ग्रहण किया, फिर आत्मामें लीनता करता है कि यह ज्ञायक है। स्थूल उपयोगसे ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। बाह्य उपयोग जो स्थूल है, राग-द्वेष आकूलतायुक्त उपयोग है, जो उपयोग बाहर खण्ड-खण्ड (होकर) एक के बाद एक ज्ञेयको ग्रहण