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समाधानः- हाँ, वह ज्ञानका विषय हो जाता है, परन्तु ग्रहण एक को ग्रहण करना। दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहे हैं। दृष्टिके साथ ज्ञान रहा है और सम्यग्ज्ञानके साथ दृष्टि रहती है। नौ तत्त्वके बीच एक आत्माको ग्रहण करना। ... दृष्टिसे जाने नौ तत्त्व, दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें हैं। एक आत्मा ग्रहण करना।
एक आत्मा प्राप्त हो, दूसरा कुछ प्राप्त (नहीं हो)। प्राप्त हो यानी उसमें पर्यायमें आयी। परन्तु एक आत्मा, नौ तत्त्व पर दृष्टि नहीं है, अकेला आत्मा, एक आत्मा ही हमेंं (प्राप्त) हो, हमें और कुछ नहीं चाहिये। यह तो एक भावना है, लेकिन नौ तत्त्वमैं एक आत्माको ग्रहण करना। भूतार्थ दृष्टिसे एक आत्माको ग्रहण करना। दृष्टि एक आत्मा पर ही है। उसमें ज्ञानमें सब आ जाता है। परन्तु ग्रहण एक आत्माको करना।
मुमुक्षुः- व्यवहार द्वारा परमार्थ..
समाधानः- हाँ, परमार्थको ग्रहण करना। व्यवहार पर दृष्टि नहीं है। दृष्टि एक परमार्थ पर है।
मुमुक्षुः- .. व्यवहार द्वारा शुद्ध स्वरूपका निरूपण किया है?
समाधानः- हाँ, ऐसा भी आता है। भेद द्वारा अभेदको ग्रहण करना। "परमार्थनो उपदेश एम अशक्य छे'। व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश नहीं होता। इसलिये बीचमें व्यवहार-ज्ञान, दर्शन, चारित्रका भेद पडता है, उसमें एक आत्माको ग्रहण करना। सीधा एक आत्माको समझकर, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्रको प्राप्त हो वह आत्मा, ऐसा व्यवहार बीचमें आता है। ग्रहण एक परमार्थको करना, बीचमें व्यवहार (आये) उसे जानना। परमार्थ और व्यवहार दोनोंको जान लेना।
मुमुक्षुः- ग्रहणका अर्थ?
समाधानः- उस पर दृष्टि करनी, ग्रहण कर लेना एक शुद्धात्माको।
मुमुक्षुः- आलम्बन?
समाधानः- हाँ, आलम्बन। उस एकके आलम्बनसे पर्यायकी साधना होती है। ग्रहण एक परमार्थको करना, बीचमें व्यवहार आये उसे जानना। परमार्थ और व्यवहार दोनोंको जान लेना।
मुमुक्षुः- दृष्टिका, ज्ञानका, चारित्रका सबका एक ही प्रकारसे पुरुषार्थ होता है या दृष्टिमें अधिक पुरुषार्थ चाहिये?
समाधानः- एक यथार्थ दृष्टि प्रगट हो तो उसके साथ सब पुरुषार्थ आ जाता है।
मुमुक्षुः- प्रकार एक ही है?