तो हिंसाका अभाव सिद्ध हो जाये। राखको मसलनेमें जैसे पाप नहीं है, वैसे जो चींटी, मंकोडा आदिको मसलनेमें पाप नहीं है, ऐसा अर्थ हो जाये। वैसा एकान्त नहीं लेना चाहिये। परमार्थसे भिन्न है। सर्वथा एकान्त नहीं लेना चाहिये। ज्ञानमें ख्याल रखना। दयाका शुभ विकल्प आये, उसे बचानेका विकल्प आये बिना रहता नहीं। फिर उसके आयुष्य अनुसार होता है, परन्तु स्वयंको बचानेका विकल्प आता है। नहीं तो हिंसाका अभाव सिद्ध होगा, बराबर है।
मुमुक्षुः- ऐसी सन्धि साथमें रखनी।
समाधानः- हाँ, वह सन्धि साथमें रखनी। वह हिंसाका (हुआ), वैसे स्तुतिका, भगवानकी स्तुतिका। भगवानका शरीर देखकर भगवान ऐसे हैं, भगवान ऐसे हैं, ऐसा करे। भगवानका शरीर ऐसा है, ऐसा स्तुतिमें भी आता है, शुभ (विकल्प आता है)। उतना सम्बन्ध ज्ञानमें रखना है।
मुमुक्षुः- परमात्म प्रकाशमें आता है, देहमें जीव बसा है, असदभूत व्यवहारनयसे, जूठी नयसे...
समाधानः- असदभूत व्यवहार है, लेकिन ऐसा व्यवहार है सही, व्यवहार है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! समयसारमें दूसरी एक बात आती है, नौ तत्त्वका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण द्वारा शुद्ध स्वरूप समझाया है, ऐसा उपोदघातमें लिखा है।
समाधानः- क्या नौ तत्त्वका?
मुमुक्षुः- नौ तत्त्वका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण द्वारा शुद्ध स्वरूहप समझाया है, ऐसा समयसारके उपोदघातमें लिखा है। तो इस नौ तत्त्वको शुद्धनयकी दृष्टिसे कैसे देखना?
समाधानः- शुद्धनयकी दृष्टिसे मैं शुद्ध ही हूँ। उसमें नौ का जो भेद पडता है, उसमें ग्रहण एक को करना। एक चैतन्यद्रव्य मैं हूँ, बाकी सब पर्याय है। मैं एक चैतन्य हूँ। इसप्रकार चैतन्यकी दृष्टिसे देखना, एक शुद्धनयसे ग्रहण कर। नौ कहनेमें आता है, लेकिन एक को ग्रहण करना। उन नौ के बीचमें रहा एक, उस एकको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- संवर, निर्जरामें उसी प्रकारसे?
समाधानः- सबमें वैसे लेना। संवर, निर्जरामें मैं एक चैतन्य अखण्ड हूँ। वह सब भेद है। साधकदशाके भेद है, मोक्षपर्यायके भेद हैं, वह सब भेद है। उन भेदके बीचमें मैं एक चैतन्य अखण्ड द्रव्य हूँ, ऐसे ग्रहण करना। मैं एक चैतन्य हूँ। नौ तत्त्वको जानकर ग्रहण एक चैतन्य शुद्धात्माको करना है। एक चैतन्य मैं हूँ। नौ तत्त्वकी परिपाटी छोडकर हमें एक आत्मा प्राप्त हो, एक चैतन्यद्रव्य प्राप्त हो। उस एक को ग्रहण करने जैसा है। एक चैतन्यको ग्रहण कर लेना। मैं एक शुद्धात्मा हूँ। ये सब पर्यायके भेद है।
मुमुक्षुः- पर्यायके भेद ज्ञानका विषय हो जाता है?