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मुमुक्षुः- जीव, शरीरसे दिवारकी भाँति भिन्न है, (यह) परमार्थ और वह सत्य है। साथमें व्यवहारकी सन्धि रखनी जरूर है? रखनी हो तो कैसे रखनी?
समाधानः- शरीरसे तो भिन्न है, अत्यंत भिन्न है। शरीर तो जड है, आत्मा चैतन्य है, तो एकदम भिन्न ही है। जड और चैतन्य, दोनों अलग है। व्यवहारकी संधि तो उतनी ही है कि उसे अमुक भव एकक्षेत्रावगाही है, उतना व्यवहारका सम्बन्ध है। एक के बाद एक जो भव धारण करता है, वह एकक्षेत्रवगाही सम्बन्ध, क्षेत्रावगाहरमें रहे हैं उतना। यह देव है, यह नारकी ऐसा कहनेमें आता है। उसके साथ उतना व्यवहार है। शरीरके साथ उतना असदभुत व्यवहार है। शरीर और आत्मा, जड और चैतन्य, दोनों विरुद्ध स्वभावी अत्यंत भिन्न हैं। जड है और चैतन्य है।
मुमुक्षुः- समयसारमें आता है कि..
समाधानः- भगवानकी स्तुति आदि होता है, वह आता है?
मुमुक्षुः- राखको मसलने जैसा होता है। यदि बिलकूल भिन्न परमार्थ और एकान्त हो जाये तो मच्छरको भस्मीभूत..
समाधानः- हाँ, उतना सम्बन्ध है, एकक्षेत्रावगाही है, इसलिये। सर्वथा भिन्न हो तो जैसे हिंसा करनेमें पाप नहीं है ऐसा हो जाये। उतना सम्बन्ध है, एकक्षेत्रावगाही है उतना सम्बन्ध है। तो फिर हिंसा होती ही नहीं, ऐसा हो जाये। जैसे मसलनेमें पाप नहीं है, वैसे जीव जो शरीर धारण करे उसे मसलनेमें पाप नहीं है, ऐसा अर्थ हो जाता है। सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- एकान्त हो जाता है।
समाधानः- एकान्त हो जाये तो वैसा अर्थ हो जाता है। वैसा एकान्त नहीं है। परमार्थसे भिन्न है, लेकिन एकक्षेत्रावगाहसे सम्बन्ध है। नहीं तो हिंसाका अभाव सिद्ध हो जाये। इसलिये एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। वह व्यवहार बीचमें आता है। दयाका विकल्प आये, ऐसा सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- उसे ज्ञानमें रखना है।
समाधानः- हाँ, ज्ञानमें जाने कि सम्बन्ध है, एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। नहीं