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समाधानः- पुरुषार्थका प्रकार एक ही है। एक आत्माको ग्रहण किया, उसकी श्रद्धाका बल आया, उसके साथ लीनताका बल आता है। लीनता बादमें होती है, पहले एक श्रद्धा प्रगट होती है। अनादिकालसे मार्ग अनजाना है, उस अपेक्षासे सम्यग्दर्शन दुर्लभ है। उसकी अपेक्षासे। एक सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ इसलिये उसे मार्ग सीधा और सरल हो गया। सीधे, सरल मार्गको जान लिया। इसलिये उसे अनादिकालसे दुर्लभ कहा जाता है ऐसा सम्यग्दर्शन, क्योंकि एकत्वबुद्धि थी, मार्ग जाना नहीं था, इसलिये मार्गको जाने बिना इधर-ऊधर भटक रहा है। मार्ग जाना और आत्मा हाथमें आ गया, इसलिये उसे श्रद्धा-सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ तो उसे मार्ग सीधा, सरल हो गया। पूरा भव पार ऊतर गया। अनन्त भवसागरसे पार ऊतर गया, अब थोडा बाकी रहा। इसलिये सम्यग्दर्शन अनन्त कालमेंं प्राप्त करना दुर्लभ है। वह प्राप्त हुआ तो उसके साथ सब आये बिना रहता ही नहीं। ज्ञान और चारित्र आदि सब आता है। दृष्टि-एक श्रद्धाका बाल, एक श्रद्धा प्रगट हुई तो उसके साथ लीनता हुए बिना नहीं रहती। किसीको जल्दी आये और किसीको बादमें आती है, धीरे-धीरे आये। परन्तु चारित्र आये बिना नहीं रहता। चारित्र यानी लीनता। ध्रुवके आलम्बनमें श्रद्धा आयी और ध्रुवके आलम्बनमें लीनता आयी। वह लीनताका पुरुषार्थ और वह श्रद्धाका पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ एक ही है, मार्ग एक ही है।
मुमुक्षुः- प्रथम (श्रद्धा) करनी है उस अपेक्षासे दृष्टिका पुुरुषार्थ दुर्लभ है।
समाधानः- दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ तो उसने मार्ग जान लिया। उसे लीनता होगी ही।
मुमुक्षुः- उसमें ज्ञानका पुरुषार्थ आ गया?
समाधानः- जो मूल वस्तुको जानता है, उसे अमुक ज्ञान, थोडा ज्ञान हो तो वह आगे जाता है। इसलिये ज्ञानका पुरुषार्थ तो बीचमें उसे विशेष निर्मलता (होनेका कारण है), द्रव्य-गुण-पर्याय (ज्ञानमें) विशेष निर्मल हो तो उसे मार्गमें सरलता रहती है। बाकी ज्ञानका कोई अलग पुरुषार्थ नहीं करना पडता। दृष्टिके साथ अमुक ज्ञान हो तो उसे लीनता, वीतरागता बढ जाये तो केवलज्ञान हो जाता है। अधिक जाने इसलिये अधिक जाननेका पुरुषार्थ करना नहीं पडता। वह तो बीचमें आता है। सच्चे ज्ञान बिना मार्ग जाननेमें नहीं आता। इसलिये मार्ग जाननेके लिये वह जानना पडता है। बाकी मूल प्रयोजनभूत जाने (तो) मार्ग सीधा हो जाता है और सरल हो जाता है।
सम्यग्ज्ञान दुर्लभ है। लेकिन अधिक जानना, वह तो बीचमें किसीको अधिका जानना आता है और किसीको अधिक जानना नहीं आता है। अधिक शास्त्र जानने पडे ऐसा उसका अर्थ नहीं है। अन्दर ज्ञानकी निर्मलता बढती जाये, स्वरूप परिणति-ज्ञायककी