१०२ परिणति बढती जाये, वह उसका ज्ञान है। ज्ञायककी परिणति बढती जाये, ज्ञाताकी धारा बढती जाये। दृष्टिका बल, ज्ञाताकी धारा बढती जाये, यहाँ लीनता बढती जाये, वह अन्दर है। अधिक जानना ऐसा ज्ञानका कोई अलग पुरुषार्थ नहीं है। वह तो बीचमें खडे रहनेके लिये आता है। अन्दर लीनतामें आगे नहीं बढता है इसलिये शास्त्र-श्रुतज्ञानमें- खडा रहता है। बीचमें श्रुतज्ञान आये बिना नहीं रहता।
दृष्टिका पुरुषार्थ और लीनताका पुरुषार्थ, दोनों होते हैं। दृष्टि-श्रद्धा ध्रुवके आलम्बनसे प्रगट हुई, उस ध्रुवके आलम्बनमें लीनताका पुरुषार्थ करता है। श्रद्धा ऐसे हुई कि ये सब कुछ आदरने जैसा नहीं है, एक चैतन्यको ग्रहण (किया), चैतन्य उसे हाथमें आ गया। उसे स्वानुभूति हो गयी, लेकिन उस स्वानुभूतिमें रहनेके लिये लीनताकी कमी है, इसलिये लीनताका पुरुषार्थ ध्रुवके आलम्बनमें विशेष-विशेष (होता जाता है)। श्रद्धाका बल बराबर है, लेकिन लीनताकी कमी है, लीनताका पुरुषार्थ करना बाकी रहता है, उसमें बीच-बीचमें ज्ञान आ जाता है। भेदज्ञानकी धारा, ज्ञेदज्ञानकी धाराकी उग्रता वह उसका ज्ञान है। बाकी अधिक जानना वह ज्ञान, वह तो बीचमें आता है। आगमज्ञान।
मुमुक्षुः- सच्चा पुरुषार्थ तो दृष्टिका पुरुषार्थ ही है।
समाधानः- दृष्टि प्रगट हुई, दृष्टिकी निर्मलता होती है और भेदज्ञानकी धारा बढती जाती है और लीनता बढती जाती है।
मुमुक्षुः- ज्ञानका कोई अलग पुरुषार्थ है, ऐसा कुछ नहीं है।
समाधानः- ज्ञानका कोई अलग प्रकारका पुरुषार्थ नहीं है। उसका यथार्थ भेदज्ञान हो गया, आत्माको पहचान लिया, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय पहचान लिये, वस्तुको पहचान ली, उसका स्वभाव-विभाव पहचान लिया, मूल प्रयोजनभूत उसने पहचान लिया, फिर ज्यादा दलील, ज्यादा युक्ति आये, अधिक शास्त्रज्ञान (हो), ऐसा तो उसे बीचमें खडे रहनेके लिये, अन्दरसे बाहर आये तब श्रुतज्ञानमें खडा रहता है। बाकी उसे अधिक जानना पडे ऐसा नहीं है। किसीको सम्यग्दर्शन हो और अन्दर लीनता बढती जाये, स्वानुभूति धारा और विरक्ति बढती जाये तो गुणस्थान बढता जाये, पाँचवे, छठ्ठे, सातवें गुणस्थानमें आ जाये। ऐसा बनता है।
ज्ञान यानी अंतरकी भेदज्ञानकी धारा बढती जाये, बाकी दूसरा शास्त्रज्ञान ज्यादा हो, ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। थोडा आता हो और श्रेणी लगाकर केवलज्ञान प्राप्त करे। किसीके साथ वादविवादमें खडा नहीं रह सके, युक्ति-दलीलमें खडा नहीं रह सके। ऐसा हो तो प्रगट हो ऐसा नहीं है। अंतरकी भेदज्ञानकी धारा और दृष्टिका एवं लीनताका बल बढता जाये।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन ही मुख्य वस्तु हुई, ऐसा लगता है।