०१९
समाधानः- सम्यग्दर्शन और लीनता। सम्यग्दर्शन हो तो लीनता होती है। लीनता बिना केवलज्ञान नहीं होता। कितने सालों तक चक्रवर्तीको गृहस्थाश्रममें सम्यग्दर्शन होता है, फिर भी लीनता नहीं हो तो केवलज्ञान नहीं होता। दर्शन और चारित्र, ज्ञान बीचमें आता है। सम्यग्ज्ञान साथमें होता है। उसमें भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता होती जाती है। ... नहीं आये तबतक ज्ञान करता रहता है।
सम्यग्दर्शनके पहले भी जिज्ञासुको विचार करना रहता है और सम्यग्दर्शन होनेके बाद उसे गृहस्थाश्रम हो तो लीनतामें देर लगती है। तो शास्त्रज्ञान, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, पूजा, भक्ति, शास्त्रज्ञान करता रहे, श्रुतज्ञान करे।
मुमुक्षुः- नहीं तो प्रमादमें चला जाये।
समाधानः- हाँ, नहीं तो चला जाये। वहाँ खडा रहता है, जबतक प्रगट नहीं हो तबतक। ज्ञान, यह मैं हूँ और यह नहीं, ऐसे भिन्नता करता है। मैं यह हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे दोनों करता है। ज्ञान सब विवेक करता है। परसे भिन्न, विभावसे भिन्न और अंश जो पर्यायभेदसे भिन्न, वह दृष्टिमें रहता है। परन्तु ज्ञानके विवेकमें फर्क पडता है।
मुमुक्षुः- सब विविक्षा ज्ञान करता है।
समाधानः- वह ज्ञान करता है। विवेकके लिये बीचमें ज्ञान रहता है। ज्ञान, इसप्रकार साधकदशामें उपयोगी है।
मुमुक्षुः- दृष्टि तो यह मैं, यह मैं, उस ओर ही...
समाधानः- यह मैं, उस ओर ही रहती है। बीचमें ज्ञान विवेक करता है।
मुमुक्षुः- गहरा अभ्यास करनेके लिये क्या करना चाहिए? बाहरके काम छोड देना?
समाधानः- स्वयं अन्दरसे स्वाध्यायका समय ढूंढ लेना। काम ऐसे नहीं होने चाहिये कि स्वयंको विचार, वांचनमें अडचन करे। इतना काम होता है कि वांचनका, विचारका समय ही नहीं मिले, ऐसा हो, इतनी प्रवृत्ति हो तो कामको कम करके निवृत्ति मिले ऐसा रखना चाहिये। अपनी शक्ति अनुसार कितना छूटे, बाकी स्वयंको निवृत्ति मिले, वांचन, विचारका समय मिले इसप्रकारके मर्यादित काम होना चाहिये। गृहस्थाश्रममें अमुक प्रकारके काम तो होते हैं, परन्तु स्वयंको निवृत्ति मिले इतना (काम रखना चाहिये)। बोझा बढाकर फिर समय ही नहीं मिले ऐसा तो नहीं होना चाहिये। छोडना, नहीं छोडना वह तो स्वयंकी रुचि पर आधारित है। बाकी गृहस्थाश्रममें स्वयंको विचार, वांचनका समय मिले इतना तो होना चाहिये।
पहलेसे सब छूट नहीं जाता, लेकिन अन्दर जिज्ञासा, ज्ञायकको पहचाननेका प्रयत्न