१०४ करे, शरीर भिन्न, मैं भिन्न आत्मा, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, उसका भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे, उसे पहचाननेके लिये प्रयत्न (करे)। स्वयंके द्रव्य-गुण-पर्याय क्या, दूसरेके क्या, इन सबका विचार करनेको, प्रयत्न करनेके लिये शास्त्र-अभ्यास, विचार, वांचनका समय मिले, उस प्रकारकी प्रवृत्ति गृहस्थाश्रममें होती है। बाकी अंतरसे सब छूटे वह तो यथार्थ सम्यग्दर्शन हो, अंतरसे पहले छूटता है, बादमें बाहरसे छूटता है। परन्तु जिज्ञासुको ऐसी प्रवृत्तिका बोझ नहीं होता कि जिससे निवृत्ति ही नहीं मिले, स्वाध्यायका समय ही नहीं मिले, ऐसा नहीं होना चाहिये। छूट जाये तो-तो अच्छा ही है, लेकिन छूटता नहीं हो तो वांचन, विचारका समय मिले उस अनुसार होना चाहिये। ऐसी मर्यादित प्रवृत्ति होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! शुरूआत शुभभावसे होती है या तत्त्वचिंतनसे शुरूआत करनी चाहिये?
समाधानः- तत्त्वचिंतवनसे शुरूआत होती है, उसमें शुभभाव साथमें होता है। तत्त्वचिंतवनको कोई पहचानता नहीं है तो पहले शुभभाव करके मानते हैं। अनादिका अभ्यास ऐसा है कि थोडे शुभभाव कर लेते हैं और मैंने बहुत किया ऐसा मान लेते हैं। परन्तु शुरूआत तो तत्त्व चिंतवनसे होती है। लेकिन तत्त्व चिंतवनके साथ शुभभाव होते हैं। शुभभाव छूट नहीं जाते। शुभभाव साथमें होते हैं और तत्त्व चिंतवन होता है। तत्त्व चिंतवनके साथ शुभभाव तो होते ही हैं।
मुमुक्षुः- मुख्य तत्त्वचिंतवन।
समाधानः- ध्येय तत्त्वचिंतवनका होना चाहिये। ध्येय वह होना चाहिये। पूरा दिन उसमें टिक नहीं पाये तो फिर.... उस तत्त्वचिंतवनके साथ शुभभाव तो होते ही हैं। उसे देव-गुरु-शास्त्रके दर्शन, भक्ति, विचार, वांचन आदि भिन्न-भिन्न प्रकारके शुभभाव होते हैं। परन्तु ध्येय चिंतवनका होना चाहिये। ध्येय, आत्माको कैसे पहचानुँ, वह होना चाहिये।
मुमुक्षुः- .. बहुत अच्छी बात की थी, दृष्टिका जोर और ज्ञान तो बीचमें खडा रहता है, आत्मार्थीतामें, जिज्ञासाकी भूमिकामें ज्ञान खडा रहता है, साधकको भी ज्ञान खडा रहता है। निश्चयमें तो दृष्टि और लीनता, दो का ही काम है।
समाधानः- मोक्षमार्गमें वह होता है, बीचमें ज्ञान होता है। ज्ञान बीचमें विवेक करता है। फिर ज्ञान अधिक या कम, उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
मुमुक्षुः- दृष्टिका जोर बढता जाये और भेदज्ञानकी धारा भी साथ-साथ बढती जाये।
समाधानः- भेदज्ञानकी धारा साथमें बढती जाये। ज्ञान उसप्रकारका बढता है कि