ट्रेक-
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भेदज्ञानकी धारा बढती जाती है। भेदज्ञानकी उग्रता और लीनता और दृष्टिका जोर। ज्ञानमें भेदज्ञानकी धारा। बाकी अधिक जानना, वह नहीं। बीचमें अधिक जाने तो ठीक है। निर्मलता हो और स्वयंकी साधकदशामें एक पुष्टि, उसे समझनेका एक ज्यादा कारण होता है। ज्ञान विवेक करने वाला है, ज्ञान सब मार्ग बताने वाला है, ज्ञान साथमें हो तो कोई नुकसान नहीं है, अधिक ज्ञान हो तो। परन्तु अधिक होना ही चाहिए, ऐसा नहीं है। प्रयोजनभूत हो तो भी जाने।
वह तो ज्ञानस्वभाव आत्माका है, ज्ञान हो, किसीको क्षयोपशम हो और अधिक जाने, शास्त्र चिंतवन करे और अधिक शास्त्रको जाने तो उसमें कोई नुकसान नहीं है। लेकिन होना ही चाहिये, ऐसा नहीं है। ?
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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