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मुमुक्षुः- ... पुरुषार्थ हो, ऐसा लगता है।
समाधानः- सहज और पुरुषार्थ, दोनों है। उसकी दशा ही ऐसी है। बाहरमें ज्यादा नहीं रुक सकता। मुनिदशाकी दशा ऐसी है कि बाहरमें ज्यादा नहीं रह सकता। ऐसी सहज उसकी दशा है। परन्तु जुड जाता है और खीँचता है, दोनों।
... अनेक प्रकारकी बाह्य प्रवृत्ति, चक्रवर्ती होते हैं उन्हें बाहरकी अनेक प्रकारकी प्रवृत्तिमें उसके विकल्प रुकते हैं। उसमेंसे शुभमें आये, उसमेंसे स्वयं शुद्धताकी ओर अपनी डोरको खीँच लेता है। उसकी दशा हो उसके अनुरूप सहज है, बाकी खीँच लेता है। पुरुषार्थ करके आगे बढता है। आगे जाते-जाते कितना समय लगे, उसका कोई नियम नहीं है। उसी भूमिकामें कितने ही साल निकल जाते हैं। फिर पुरुषार्थ बढे तो भूमिका पलटती है। कितनोंको जल्दी पलट जाती है, किसीको देर लगती है। कितने साल तक सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें गृहस्थाश्रममें चक्रवर्ती आदि रहते हैं। भरत चक्रवर्तीने अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। एकदम पुरुषार्थ शुरू हो गया।
श्रुतज्ञान बीचमें आता है, परन्तु कितना श्रुतज्ञान.. कितने ही मुनिओंको श्रुतकेवली कहनेमें आता है। उतना श्रुतज्ञान उन्हें बीचमें आता है। कहते हैं न? श्रुतज्ञान और केवलज्ञानमें कोई अंतर नहीं है। परोक्ष और प्रत्यक्षका (ही अंतर है)। वह संवेदनकी अपेक्षासे कहा। ये जो श्रुतज्ञान श्रुतकेवलीको होता है, उसे भी ऐसा ही कहते हैं। वह परोक्ष है और केवलज्ञानीका प्रत्यक्ष है। परोक्ष-प्रत्यक्षका अंतर है। इसलिये केवलज्ञानी जितना श्रुतकेवली जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। उतना (श्रुतज्ञान) बीचमें आता है। परन्तु काम तो मोक्षमार्गमें दर्शन और चारित्र(का मुख्य होता है)। ज्ञान काम तो बीचमें होता ही है, परन्तु ज्ञान विवेक करता है। अधिक जानना वह नहीं। बीचमें भेदज्ञानकी धारा (उग्र होती है)। भेदज्ञान कहाँ तक भाना? कि स्वरूपमें जबतक स्थिर नहीं हो, तबतक होता है। भेदज्ञान अत्रुट धारासे भाना। भेदज्ञान बीचमें कार्य करता है। भेदज्ञानकी उग्रता, ज्ञान वह कार्य करता है। भेदज्ञानकी उग्रता। दृष्टि द्रव्य पर है, भेदज्ञानकी उग्रता और लीनता।
मुमुक्षुः- बहुत बडा सिद्धान्त आ गया।