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समाधानः- .. ऐसी उसे उपमा देते हैं-परोक्ष। बाकी केवलज्ञानीका प्रत्यक्ष (है)। बादमें कहते हैं न कि मेरा क्षयोपशमज्ञान कहाँ और प्रभु! आपका क्षायिक कहाँ और मैं कहाँ! ऐसा कहते हैं। अंतर्मुहूर्तमें मेरा उपयोग जानता है, आप तो एक समयमें जान सकते हो। मैं कहाँ, उसका कोई मेल नहीं है। आपका तो अनन्त (ज्ञान) और मेरा तो कितना आंशिक! उस अपेक्षासे श्रुतज्ञानको (परोक्ष) कहते हैं। यह तो क्षयोपशम क्षण-क्षणमें जानने वाला, उपयोग अंतर्मुहूर्त हो तब जाननेमें आये, आप तो एक समयमें जानते हो, उस अपेक्षासे बहुत फर्क है। केवलज्ञान अनन्त और क्षयोपशम तो एक अंतर्मुहूर्तमें जानने वाला, इसलिये थोडा उसका मेल नहीं बैठता इसलिये ऐसा कहते हैं। उसकी महिमामें ऐसा कहे कि श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी दोनों समान हैं, ऐसा कहनेमें आये। शास्त्रमें आता है, श्रुतज्ञानी और केवलज्ञान (दोनों समान हैं)। संवेदनकी अपेक्षासे आता है। परन्तु अन्दर दोनों ले सकते हैं।
समाधानः- ... मनुष्यदेह मिले, उसमें पंचमकालमें गुरुदेव मिले वह महाभाग्यकी बात है। सबको ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायककी सबको रुचि करवायी। शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न आदि गुरुदेवने ही सिखाया है। महाभाग्यकी बात है। भवका अभाव करनेका प्रसंग बना। नहीं तो समाज तो कहाँ पडा था। क्रिया आदि, शुभभाव। शुभाशुभ भावसे भिन्न आत्मा किसने बताया? गुरुदेवने बताया है। इसलिये सबको इतने संस्कार प्राप्त हुए हैं।
जीवने कितने जन्म-मरण किये हैं। एक-एक आकाशके प्रदेशमें, अनन्त अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी कालमें, एक-एक आकाश प्रदेशमें जन्म-मरण करते-करते बाहरके पुदगल परमाणु लोकमेंसे जितने ग्रहण किये उतने छोडे हैं। उतने जीवने भव धारण किये। आकाशके एक-एक प्रदेश पर जन्म-मरण, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी कालमें अनन्त जन्म-मरण धारण किये, उसमें ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग मिला वह महाभाग्यकी बात है। गुरुदेवके प्रतापसे सबको यह मार्ग मिला है, महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- .. उस भावको दृढ करनेके लिये, उस भावमें अधिक-अधिक गहराईमें जा सके, ऐसा करनेके लिये, वांचन तो बराबर है, लेकिन साथ-साथमें .. जिससे एकदम दृढ हो, स्वरूपमें लीनता हो, आनन्द है...
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी रुचि ज्यादा लगनी चाहिये। बाहरकी रुचि कम हो, अंतरकी जिज्ञासा, लगनी, भावना अन्दर बढाये। मैं तो ज्ञायक ही हूँ, यह शरीर मैं नहीं हूँ, ये शुभाशुभ विकल्प भी मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। इसप्रकार बारंबार प्रयास करता रहे। वांचन, विचार तो करे, लेकिन उसके साथ बारंबार भिन्न करनेका प्रयास करे कि मैं तो भिन्न ही हूँ। उसका स्वभाव पहचानकर कि यह जानने वाला है वही मैं हूँ। इसके सिवा