Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

१०८ दूसरा है वह मैं नहीं हूँ। जो जानने वाला है वह मैं हूँ। और जानने वालेमें-स्वरूपमें लीन हो तो उसमें आनन्दादि अनंत गुण भरे हैं। परन्तु उसकी अनुभूति उसमें लीन हो तो होता है। परन्तु पहले उसे बराबर पहचानकर भेदज्ञानका प्रयास करे तो होता है। बारंबार भेदज्ञानका प्रयास करना पडे। क्षण-क्षणमें, जागते-सोते, स्वप्नमें भेदज्ञानका अभ्यास बारंबार तीव्रतासे करे तो होता है।

यह चैतन्यद्रव्य है वह मैं हूँ, इसके सिवा दूसरा मैं नहीं हूँ। उसकी महिमा आये, उसे बराबर पहचाने, उसकी प्रतीति दृढ हो। प्रतीत दृढ हो तो उसमें लीनता होती है। बाहर जा रहे उपयोगको सवरूपकी ओर मोडे, उसमें लीन करे तो होता है। बारंबार उसके लिये प्रयास करना पडे। जो चैतन्य है सो मैं हूँ, उसमें अनन्त गुण हैं और उसकी पर्यायें, अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने और दूसरे पुदगलके द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने, फिर उसे भिन्न करे कि यह चैतन्य है वही मैं हूँ।

अनादिअनन्त शाश्वर हूँ, ये पर्याय प्रतिक्षण परिणमति है। उस पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत आत्मा हूँ। पर्याय परिणमे, स्वयं परिणमित हो परन्तु मैं तो शाश्वत हूँ। इसप्रकार उसकी दृष्टि बारंबार द्रव्य पर जाये तो स्वरूपकी प्राप्ति हो। पहले उसका अभ्यास बारंबार करना। जबतक वह नहीं हो तबतक बाहरमें वांचन, विचार, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि शुभभावमें (जाये), परन्तु मैं तो उन सबसे भिन्न शुद्धात्मा हूँ, ऐसा ध्येय होना चाहिये। बारंबार उसका प्रयास होना चाहिये। बारंबार करते रहना। वह ऐसा है कि होता है, अपना स्वभाव है। इसलिये स्वयं करीब और समीप ही है, दूर नहीं है, परन्तु अनादिका अभ्यास विभावकी ओर हो गया है, इसलिये दूर हो गया है। अभ्यास बाहरका है, अंतरका अभ्यास बारंबार उसका प्रयास नहीं किया है, इसलिये दुर्लभ हो गया है। हो सकता है, अनन्त जीवोंने यह प्रयास करके भेदज्ञान करके स्वानुभूति करके केवलज्ञान प्रगट करके मोक्षमें गये हैं। हो सकता है। बारंबार उसका प्रयास करता रहे। नहीं हो तो छोडना नहीं, परन्तु बारंबार प्रयास करते रहना।

(ज्ञायकके) द्वार पर बारंबार टहेल लगाते रहे तो उसके द्वार खुल जाये। जैसे भगवानके द्वार पर टहेल लगाये तो भगवानके द्वार खुल जाते हैं। वैसे चैतन्यके द्वार पर, ज्ञायकके द्वार पर बारंबार उसका अभ्यास करनेकी टहेल लगाये तो उसके द्वार खुल जाये। उसमें थकना नहीं, बारंबार अभ्यास करते रहना।

मुमुक्षुः- रुचिका विषय तो इतना है कि मैं ज्ञायक परिपूर्ण आत्मा हूँ और बाकी सब मुझसे भिन्न है। ...

समाधानः- सच्ची प्रतीत हो तो अपनी श्रद्धा दृढ हो गयी, रुचिका विषय उतना हो गया। परन्तु जिसे अभी अन्दरसे सच्चा प्रगट नहीं हुआ है, भावना भाता है, उसकी