है। स्वयं अपने शुद्धात्माका कार्य कर सकता है और अज्ञान अवस्थासे विभाव करता है। बाकी दूसरे परपदार्थका वह कुछ नहीं कर सकता। जड पदार्थका करे, कोई किसीका करे, एक चैतन्य दूसरेका करे या एक पुदगल दूसरेका करे तो द्रव्यकी स्वतंत्रता ही नहीं रही।
वस्तु स्वयं स्वतंत्र महान पदार्थ है। सबके द्रव्य-गुण स्वतंत्र हैं। कैसे परिणमना वह अपने हाथकी बात है। एक पदार्थ दूसरेका करे तो वह पदार्थ कमजोर हो गया। तो दूसरा कुछ दूसरा कर दे, स्वयं सुलटा करे, दूसरा ऊलटा कर दे, ऐसा पराधीन वस्तुका स्वरूप होता ही नहीं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। स्वतः कैसे परिणमना वह उसके हाथकी बात है। उसके हाथकी बात है। पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है।
मुमुक्षुः- स्व और परका भेदज्ञान कैसे करना?
समाधानः- रोज वह बात आती है। करना तो स्वयंको पडता है। कैसे करना? तो लक्षण पहचानकर करना। उसका लक्षण तो पहचाना जाय ऐसा है। ज्ञानस्वभावको पहिचानना। ये विभाव है और ये स्वभाव है। लक्षण पहिचानना पडे। काँच और हीरेकी परख तो जो जौहरी हो वह करे न। लक्षणसे पहचानमें आता है। अंतरमेंसे सच्ची जिज्ञासा हो तो पहचानमें आ ही जाता है कि यह ज्ञान है और यह विभाव है। तो भेदज्ञान हो। लक्षण पहिचाने तो भेदज्ञान हो। परन्तु उसका अभ्यास चाहिये। ये ज्ञान है, ज्ञान है, ज्ञान है, उसका बारंबार अभ्यास करना चाहिये कि यह ज्ञाता है। ज्ञान अर्थात ज्ञाता।
... विकल्प तो आते हैं, पुरुषार्थ करना। पलटाना चाहिये पुरुषार्थ करके कि मैं ज्ञायक हूँ। बारंबार उसमें टिक न सके तो उस जातका विचार, वांचन, स्वाध्याय, महिमा करनी। देव-गुरु-शास्त्रकी, आत्माकी-ज्ञायककी महिमा करनी, न पलटे तो। भावना रखनी, पुरुषार्थ करना।
मुुमुक्षुः- माताजी! आपका जीवने तो बचपनसे इतना वैराग्यमय था, अदभूत आश्चर्यकारी। और हमें तो ऐसा लगता है कि अरे..! ये दुनिया ऐसी है, सब छोडने लायक है, बस! आत्माका ही करना है।
समाधानः- अभ्यास है न। क्षणभर वैराग्य आता है, फिर बदल जाता है। अन्दर गहराईसे हो तो होता है। उसकी लगन अंतरमेंसे लगनी चाहिये। इस मनुष्यजीवनमें वही करना है। बारंबार उसीकी लगन, बारंबार अभ्यास करना चाहिये। पलट तो जाता है, अनादिका अभ्यास है इसलिये पलट जाता है। और अंतरमेंसे उतनी लगी हो तो अंतरमें वही खटक रहा करे। अरे..! आत्माका करना बाकी रह जाता है। सब किया लेकिन आत्माका करना बाकी रह जाता है। ऐसी अंतरमेंसे खटक लगनी चाहिये।