समाधानः- वह कल्पना है। फिर क्रमबद्ध अर्थात बाह्य पदार्थ जैसे होने हों वैसे हो, कर्ताबुद्धि छोड दे कि मैं यह नहीं करता हूँ, वह क्रमबद्ध अलग। स्वभावका क्रमबद्ध तो पुरुषार्थपूर्वक ही होता है।
मुमुक्षुः- ये तो थोडा दिलासा लेनेकी बात है।
समाधानः- हाँ, बाहरका जो होनेवाला है वह क्रमबद्ध ही है। बाह्य संयोग अनुकूलता- प्रतिकूलताके वह सब तो क्रमबद्ध है। परन्तु अन्दर स्वभावपर्याय प्रगट होनी वह तो पुरुषार्थपूर्वक प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- वह मुद्देकी बात है।
समाधानः- वह पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। पुरुषार्थ बिना क्रमबद्ध नहीं होता। अपनेआप हो जाता है, उसमें पुरुषार्थ नहीं होता और ऐसे ही हो जाता है, ऐसा नहीं है। जिसे स्वभाव प्रगट करना हो उसकी दृष्टि तो मैं स्वभावकी ओर जाऊँ, ऐसी उसकी भावना होती है। उसकी ज्ञायक-ओरकी धारा होती है। उसे ऐसा नहीं होता है कि भगवानने जैसा देखा होगा वैसा होगा। ऐसा नहीं, उसे अंतरमें परिणति प्रगट करुँ ऐसा होता है। अंतर शुद्धिकी पर्याय प्रगट होनेकी ओर उसकी पुरुषार्थकी गति परिणमती है। जिसकी पुरुषार्थकी गति अपनी ओर नहीं है, उसे स्वभावकी ओरका क्रमबद्ध होता ही नहीं।
मुमुक्षुः- मुख्यता तो पुरुषार्थकी ही है।
समाधानः- पुरुषार्थकी मुख्यता है।
मुमुक्षुः- ... नहीं आये तो क्रमबद्ध समझमें ही नहीं आया।
समाधानः- तो क्रमबद्ध समझमें नहीं आया है।
मुमुक्षुः- वास्वतमें तो ऐसा है न?
समाधानः- हाँ, वास्तवमें ऐसा है कि क्रमबद्ध समझमें ही नहीं आया। होनेवाला होगा, स्वभावका जो होनेवाला होगा, पुरुषार्थ होनेवाला होगा तो होगा, ऐसा करे तो उसकी अंतरकी सच्ची जिज्ञासा ही नहीं है। जिज्ञासुको ऐसा अंतरमेंसे संतोष आता ही नहीं। जिसे स्वभावपर्याय प्रगट होनेवाली है उसे ऐसा संतोष नहीं होता कि होना होगा वह होगा, भगवानने कहा है वैसे होगा, ऐसा संतोष नहीं आता। उसे अंतरमें खटक रहती है कि कब मुझे अंतरमें स्वभावपर्याय कैसे प्रगट हो? कैसे हो? ऐसी उसे खटक रहा करती है। इसलिये वह स्वभावकी ओर उसके पुरुषार्थकी गति मुडे बिना रहती नहीं। इसलिये पुरुषार्थ उसका स्वभावकी ओर जाता है, (इसलिये) उस प्रकारका क्रमबद्ध है।
बाहरके जो फेरफार होते हैं, उसमें स्वयं कुछ नहीं कर सकता। बाहरके संयोग- वियोग, अनुकूलता-प्रतिकूलता सब। विभावपर्यायमें जैसा होना होगा वैसा होगा, ऐसा