भिन्न हैं।
सब भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। चैतन्यतत्त्व भिन्न है। सबका आत्मा भिन्न, सब अपना- अपना पुरुषार्थ द्वारा कर सकते हैं। परन्तु अनादिसे भ्रमणा है कि शरीर सो मैं, ये सब मैं, बाहरमें सबमें एकत्वबुद्धि कर रहा है। चैतन्यकी ओर दृष्टि करे तो करना वह है। उसकी लगन लगानेकी जरूरत है। गुरुदेवने क्या कहा है, उसका विचार करनेकी जरूरत है। गुरुदेवने कोई अलग मार्ग बताया है। वस्तु-द्रव्य, गुण, पर्याय अनन्त शक्तिओंसे भरा तत्त्व है। उसे पहचाननेकी जरूरत है।
शास्त्रोंमेसे अपने आप समझे तो... गुरुदेवने जो कहा है, गुरुदेवके जो प्रवचन.. पहले शुरूआतमें तो गुरुदेवके प्रवचन पढे तो उसमेंसे समझमें आये। मूल शास्त्रमेंसे अभी कुछ समझमें नहीं आता हो उसे मुश्किल पडता है।
.. तो यथार्थ फुरुषार्थ हो। समझन ही सच्ची न हो तो यथार्थ पुरुषार्थ कहाँ- से हो? अभी पुरुषार्थ करनेकी पडी न हो, अन्दर लगन लगे, आत्माकी जरूरत लगे तो पुरुषार्थ हो न। रुचि सब बाहर पडी हो तो अन्दर जरूरत नहीं लगे तो पुरुषार्थ कहाँसे हो? अंतरमें जाय तो कोई अपूर्व आत्मा है, उसकी स्वानुभूति हो, उसका आनन्द आवे। परन्तु स्वयंको जरूरत लगनी चाहिये न।
स्वानुभूति कोई अपूर्व वस्तु गुरुदेवने बतायी है। सबकुछ अन्दर ही है। स्वयं नित्य है और पर्याय बदलती है। एक वस्तुमें है। बदलता कोई और है, नित्य कोई और है। एक नित्य वस्तु है, उसीमें परिणमन होता है। स्वभावरूप परिणमना अपने हाथकी बात है। स्वभाव तो अनादिअनन्त नित्य है।
मुमुक्षुः- अनुभूतिमें आनन्दका कुछ वर्णन हमें सुनाईये।
समाधानः- वह कोई कहनेकी बात है? आत्मा अनुपम है। उसका आनन्द अनुपम, उसका स्वभाव अनुपम। अनन्त गुणोंसे भरा आत्मा है। अनन्त गुण, जहाँ उसकी निर्मल पर्याय प्रगट हो, वह अनुपम है उसका आनन्द। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती। वह कोई अनुपम है। विकल्प टूटकर जो स्वानुभूतिका आनन्द आये वह अनुपम है। कोई उपमा नहीं है कि उसके साथ मेल आवे।
मुमुक्षुः- बहिनश्रीको लिपटकर रहेंगे उनका भी बेडा पार है। तत्त्व भले कम समझे।
समाधानः- गुरुदेवके चरण मिले वह सब भाग्यशाली है। पंचमकालमें गुरुदेवके चरण सबको लंबे समय तक मिले हैं। वाणी बरसायी है। ऐसे कालमें ऐसे महा सत्पुरुषका योग प्राप्त होना, बहुत मुश्किल दुर्लभ है।
मुमुक्षुः- ऐसी ताकत है कि नित्य निगोदमेंसे मनुष्य भवमें प्रथम बार आकर