१६० है। स्वमें एकत्व (करे)। मैं चैतन्य शाश्वत अनादिअनन्त हूँ। अनन्त जन्म-मरण किये तो भी चैतन्य तो वैसाका वैसा शाश्वत है। उसके अनन्त गुण या उसका स्वभाव नाश नहीं हुआ। वैसा का वैसा है। उसे पहचानना, वह उपाय है। उसे पीछाननेका प्रयत्न करना, उसका विचार करना, उसका अभ्यास करना। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माकी महिमा अंतरमें रखकर तत्त्वका विचार करना, यह उसका उपाय है।
अनन्त कालसे परपदार्थ.. स्व-परकी एकत्वबुद्धि हो रही है। एकत्वबुद्धि तोडनी। परके द्रव्य-गुण-पर्याय और स्व द्रव्य-गुण-पर्याय दोनों भिन्न हैं, उसे भिन्न करना। यह उसका उपाय है। आत्मा कोई अपूर्व अदभूत वस्तु है। उसे प्राप्त करनेके लिये उसके विचार, उसकी प्रतीत, उस जातकी लीनता वह सब करने जैसा है।
उसे लक्षणसे पहचानना। आत्मा स्वयं ज्ञानलक्षण है। कोई वस्तुको पीछाननी हो तो लक्षणसे पहचानते हैं न? भिन्न करना। शक्करका मीठा स्वभाव है, कालीजीरीका कडआ स्वभाव है। उसे स्वभावसे पीछाना जाता है। वैसे आत्माका जाननेका लक्षण है। ये पुदगल कुछ जानता नहीं। जो जानता है वह मैं हूँ। जिसमें आनन्द है, जो जानता है वह मैं हूँ। इस प्रकार लक्षणसे पहिचान। लक्षणको पीछाने बिना वह भिन्न कैसे होगा? इसलिये लक्षणसे पीछानना।
अनादिका अनजाना पहचाना नहीं जाता। लक्षणसे पहचान। और गुरुदेव मार्ग दर्शाते हैं कि तू भिन्न कोई अपूर्व है। ये जो अनादिका है वह अपूर्व नहीं है। वह सर्वस्व नहीं है, वह रखनेयोग्य नहीं है। आत्मा है वही रखनेयोग्य और आनन्दरूप है। ये सब तो दुःखरूप है। इतनी प्रतीत अंतरमेंसे आनी चाहिये। उसका ज्ञानलक्षण कभी नाश नहीं हुआ। वह जाननेवाला सदा जाननेवाला ही है। अंतरमेंसे शान्ति आवे, अंतरमेंसे ज्ञान आवे, अंंतरमेंसे अनन्त गुणकी पर्यायें अंतरमेंसे प्रगट होती है। बाहरसे कुछ नहीं आता है।
उसकी लगन लगाते रहना। उसका पुरुषार्थ करते रहना, उसका अभ्यास करते रहना। जब तक नहीं होता तब तक चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, उसकी भावना करता रहे, उसका प्रयास करते रहना, भेदज्ञान करनेका।