Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-१६१

है या वास्तवमें आत्मा द्रव्य और पर्यायके प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं?

समाधानः- भावभेदसे भिन्न है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव तो ऐसा कहते थे, ऐसा बहुत लोग कहते हैं।

समाधानः- पर्याय स्वयं स्वतंत्र है और द्रव्य स्वतंत्र है। दोनोंकी स्वतंत्रता दर्शाने हेतु उसके प्रदेश (भिन्न कहनेमें आते हैं)। पर्यायका और द्रव्यका स्वरूप भिन्न है। इसलिये उसके प्रदेश भिन्न है। परन्तु यदि चैतन्यकी विभावपर्याय जड ही करता हो तो उसे छोडना रहता नहीं, उसे कुछ पुरुषार्थ करना नहीं रहता है। विभावपर्याय होती है अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे और वह निज स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है, जिसका स्वभाव भिन्न उसका क्षेत्र भिन्न, वह वस्तु भिन्न आदि सब उसके भाव अपेक्षासे भिन्न कहनेमें आता है।

परन्तु जैसे दो द्रव्य स्वतंत्र हैं, एक चैतन्यद्रव्य, दूसरा जडद्रव्य, वह दोनों स्वतंत्र हैं, वैसे ही द्रव्य और पर्याय वैसे ही स्वतंत्र हो तो पर्याय स्वयं ही द्रव्य हो जाय। तो वह दो द्रव्य भिन्न हो जाय। परन्तु दो द्रव्य भिन्न हैं, उसी अपेक्षासे द्रव्य और पर्याय उसी अपेक्षासे भिन्न हैं, ऐसा नहीं है।

द्रव्य स्वयं शाश्वत त्रिकाल है और अनन्त गुणसे भरा द्रव्य है और पर्याय क्षणिक है एवं एक अंश है। और द्रव्य सत, गुण सत, पर्याय (सत)। पर्याय भी एक सत है। उसे सत बतानेके लिये और वह भी एक सत स्वरूप है, वह दर्शाने हेतु उसके प्रदेश भिन्न कहनेमें आते हैैं। परन्तु वास्तवमें जैसा आत्माका क्षेत्र भिन्न है और जैसा क्षेत्र पुदगलका भिन्न है, वैसा ही उसका क्षेत्र भिन्न हो तो दो द्रव्य हो जाय। पर्याय है वह द्रव्यके आश्रयसे होती है। पर्याय अकेली स्वतंत्र ऊपर-ऊपर नहीं होती है। इसलिये पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। उस अपेक्षासे दो द्रव्य भिन्न हैं, वैसी ही पर्याय स्वतंत्र नहीं है। परन्तु अमुक अपेक्षासे उसकी पर्याय सत है ऐसा बतानेके लिये, उसका भाव भिन्न है, इसलिये क्षेत्र भिन्न, इसलिये वस्तु भिन्न है, ऐसा कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- ज्ञान भिन्न, राग भिन्न। रागका प्रदेश निर्मल पर्यायके न माने, लेकिन रागका प्रदेश भिन्न माननेमें कोई दिक्कत आती है?

समाधानः- रागका प्रदेश भले ही भिन्न माने। उसमें कोई दिक्कत नहीं आती। परन्तु वह अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। ज्ञानकी निर्मल पर्याय है उसका तो वेदन होता है और निज स्वभावरूप परिणति है। और ये तो विभावरूप परिणति है। इसलिये उसके प्रदेशभेद माननेमें दिक्कत नहीं आती, परन्तु वह अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, उसका लक्ष्य होना चाहिये। वह बिलकूल जडके ही हैं, तो स्वयंको पुरुषार्थ करना नहीं रहता है।