१७० तो होते हैं। परन्तु उस पर वह रुकता नहीं। उसकी दृष्टि द्रव्य पर है। वैसे रुचिवाला है, उसको विकल्प सब आते हैं, परन्तु वह उसमें रुकता नहीं। वास्तविक साधन तो मैं द्रव्य पर दृष्टि करके जो अंतरमेंसे मेरी परिणति प्रगट हो, वही मेरा वास्तविक साधन है। परन्तु बीचमें उसे रुचिके साथ ये सब-मैं चैतन्य हूँ, मैं ज्ञान हूँ ऐसा अभ्यास आये बिना रहता नहीं। वह बीचमें अमुक प्रकारसे आता है।
जैसे गुरुका उपदेश बीचमें होता ही है, वैसे ये अमुक जातके विकल्प शुभ हैं, वह बीचमें आते हैं। मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, वह सब भेदविकल्प है। लेकिन उसकी दृष्टि, मैं तो अनन्त गुणका पिण्ड चैतन्य जो अस्तित्व (है), जो चैतन्य हूँ सो हूँ अस्तिरूप, उसमें विकल्प साधन नहीं होता। उसे विकल्प तोडनेमें विकल्प साधन नहीं होता। निर्विकल्पका साधन विकल्प नहीं होता। निर्विकल्प दशाका साधन स्वयं अपनी परिणति निर्विकल्परूप परिणमे, वह साधन है। परन्तु यह बीचमें आये बिना नहीं रहता। परन्तु उसे ज्ञानमें ऐसा होना चाहिये कि यह व्यवहार है, यह वास्तविक नहीं है। उसके ज्ञानमें ऐसा होना चाहिये। उसे सर्वस्वता नहीं मान लेनी कि ऐसा करते-करते होगा। परन्तु उसकी दृष्टि अस्तित्व ग्रहण करने पर होनी चाहिये कि मैं मेरा अस्तित्व कैसे ग्रहण करुं? दृष्टि उस ओर होनी चाहिये। परन्तु स्वभावकी खोज करनी कि यह ज्ञान है, दर्शन है, ऐसे खोज करनेके विचार उसे आये बिना नहीं रहते।
मुमुक्षुः- आये बिना नहीं रहता यह बराबर है, लेकिन उसकी रुचि हो जाय तो निश्चय प्रगट नहीं होता न? क्योंकि व्यवहार है वह असत्यार्थ है, अभूतार्थ है।
समाधानः- उसकी रुचि यानी उसीमें अटक जाना ऐसा तो होना ही नहीं चाहिये। दृष्टि तो आगे बढनेकी होनी चाहिये। उसमें अटक जाना ऐसा नहीं होना चाहिये। परन्तु वह तो बीचमें आता है। आचार्यदेव कहते हैं, हम आपको तीसरी भूमिकामें जो अमृतकुंभ भूमिकामें जानेको कहते हैं, वहाँ नीचे-नीचे मत गिरो। जो शुद्ध भूमिकामें जानेको कहते हैं, उसमें शुभ छोडकर अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। परन्तु शुद्धकी भूमिकामें जानेको कहते हैैं। उसमें बीचमें यह शुभ तो आता है, परन्तु वह सर्वस्व है ऐसा नहीं मानना। शुद्ध भूमिका-अमृतकुंभ भूमिका कैसे प्रगट हो, दृष्टि वहाँ होनी चाहिये। रुचि तो वहाँ होनी चाहिये। परन्तु रुचि वहाँ है। बीचमें ये सब जो व्यवहार है वह आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- एक अंतिम प्रश्न पूछता हूँ कि निर्विकल्प और सविकल्प। तो ज्ञानीको निर्विकल्पपना कितने समयमें आता है? क्षयोपशमवालेको आना जरूरी है। क्षायिक समकितीको लडाईके मैदानमें जाय और साठ हजार वर्ष तक वापस न आये तो उसमें