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हो जाय, ... उस रूप ही मन ... दस मिनट.. दूसरी कोई प्रवृत्तिमें कैसा उसीमें चित्त रहता है। ऐसा कैसे होता होगा?
समाधानः- उसका उसे अभ्यास है, इसलिये ऐसे ही चला जाता है। जो संसारकी प्रवृत्तिका कार्य और विचार ऐसे ही चलते रहते हैं। इसमें अन्दर विचार करके नया कुछ विचार करने जाता है, पुरुषार्थ करने जाता है तो अन्दरका दूसरा अभ्यास है वह चला आता है। पुरुषार्थके बलसे उसे पलटना पडता है। दूसरा सहज हो गया है, यह इतना सहज नहीं है। इसलिये उसे पुरुषार्थसे सहज हो, ऐसा करे तो वह थोडी देर भी टिके। बाकी उपयोग तो पलटता रहता है। इसलिये उसे बारंबार जोडते रहना। विचारमें, दर्शनमें, वांचनमें। क्योंकि उपयोग तो अंतर्मुहूर्तमें पलटता रहे। उतनी स्थिरता नहीं है, इसलिये जल्दी पलटता है। अन्दर उस प्रकारका रस होता है, इसलिये पलटता रहता है।
जिसे अन्दर इस ओरके विचार ज्यादा स्थिर हो गये हो, तो उसे जल्दी नहीं पलटता। वह चलता हो इसलिये जल्दी पलटता है। अन्दर ज्यादा घोलन करना। इसीलिये आता है न? देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें तू रहना। तेरा पुरुषार्थ उतना जोरदार नहीं है कि तू अकेला तेरे आधारसे टिक सके। इसलिये देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें उपादान तेरा, परन्तु उसमें उसे सहज-सहज पुरुषार्थ होता है। इसलिये ऐसा कहनेमें आता है। जहाँ करे, वहाँ स्वयंको ही करना होता है। परन्तु उपादान तो स्वयंका होता है। परन्तु ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध होता है। विचार, शास्त्रका चिंतवन, श्रुतका चिंतवन, उसका ज्यादा अभ्यास करे, चित्तको स्थिर करे तो होता है। .. कैसे समझमें आय, वह ध्येय होना चाहिये। देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें रहना, साधर्मीके सत्संगमें रहना, ऐसा कहनेमें आता है, उसका कारण यही है कि तेरी उपादानकी उतनी तैयारी न हो तो ऐसे सान्निध्यमें तू रहना। तू स्वयंसे बारंबार पुरुषार्थ करते रहना। कुछ पढना, टेप सुने तो उसीमें चित्त स्थिर रहे तो उसकी भावना दृढ रहे।